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________________ जैनदर्शन में भावना विषयक चिन्तन ३२१ (१०) धर्म भावना 'धर्म' शब्द बड़ा व्यापक है। यह हबते का सहारा, अनाथों का नाथ, सच्चा मित्र और परभव में साथ जाने वाला सम्बन्धी है । इसके अनेक रूप हैं। जो उसे धारण करता है उसके दुख सन्ताप दूर हो जाते हैं। "वत्थु सहावो धम्मो” वस्तु का स्वभाव धर्म है। अतः धर्म में दृढ़ श्रद्धा और आचरण में धर्म को साकार करते हुए हमें आत्मा को इहलोक और परलोक में सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। (११) लोक भावना लोक का अर्थ है-जीव समूह और उनके रहने का स्थान । जैसे एक घर में रहने वाला सदस्य अपने घर के सम्बन्ध में बातचीत करता है, उसके उत्थान आदि के बारे में चिन्तन करता है वैसे ही मनुष्य इस लोक गृह का एक सदस्य है। अन्य जीव समूहों के साथ उसका दायित्व है, सम्बन्ध है क्योंकि लोक में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । ऐसे लोक स्वरूप का चिन्तन व्यक्ति को वैराग्य और निर्वेद की ओर उन्मुख करता है। (१२) बोधिदुर्लभ भावना अनन्त काल तक अनेक जीव योनियों में भ्रमण करते हुए यह मनुष्य भव मिला है। अनेक बार चक्रवर्ती के समान ऋद्धि प्राप्त की है। उत्तम कुल, आर्य क्षेत्र भी पाया, परन्तु चिन्तामणि के समान सम्यक्त्व रत्न प्राप्त करना बड़ा दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है। शास्त्रों, विद्वानों और सन्तों ने व्यक्ति के जन्म-मरण को सुधारने और उसके व्यक्तित्व के विकास के लिये भावना की शुद्धि को जो महत्व दिया है वह सचमुच बड़ा प्रेरक है। आज व्यक्ति यदि अपने भावशुद्धि की ओर ध्यान दे तो उसके अन्तर्मन में छाया राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का कुहरा एकदम समाप्त हो जायगा और उसका जीवन स्वच्छ निर्मल जल की भांति शुद्ध और शीतलतादायक बन जायेगा । शुद्ध भावना से न केवल व्यक्ति को व्यक्तिगत लाम होगा वरन इससे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सौजन्य का वातावरण भी बनेगा। Jain Education International ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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