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________________ ३२० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ से आत्मा को भिन्न समझना चाहिए। आत्मगुणों को पहचानने के लिए भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा हैसकम्म बीओ अवसो पयाइ, परं भवं सन्दर पावगं या॥ (उत्त० अ० १३, गा० २४) अर्थात् यह पराधीन आत्मा द्विपद, दास-दासी, चतुष्पद-घोड़ा, हाथी, खेत, घर, धन, धान्य आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने किये हुए अच्छे या बुरे कर्मों को साथ लेकर परभव में जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि ये सब पदार्थ पर हैं अर्थात साथ जाने वाले नहीं हैं, फिर इनमें आनन्द क्यों मनाना? इस शरीर से आत्मा को भिन्न मानना ही अन्यत्व भावना है। (६) अशुचि भावना यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, मांस, रुधिर, चर्बी इसमें मरे हुए हैं। यह अनेक व्याधियों का घर है, रोग व शोक का मूल कारण है। व्यक्ति सुन्दर कामिनियों पर मुग्ध हो जिन्दगी बर्बाद कर देते हैं किन्तु उस सुन्दर चर्म के भीतर ये घिनौने पदार्थ भरे पड़े हैं। ऐसा शरीर प्रीति के योग्य कैसे हो सकता है ? इस प्रकार अशुचि भावना का चिन्तन कर शरीर की वास्तविकता समझ आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। (७) आस्रव भावना अज्ञान युक्त जीव कर्मों का कर्ता होता है। कर्मों के आगमन का मार्ग आस्रव कहलाता है। आस्रव यानि पुण्य-पाप रूप कर्मों के आने के द्वार जिसके माध्यम से शुभाशुभ कर्म आत्म-प्रदेशों में आते है, आत्मा के साथ बँधते हैं। यह संसार रूपी वृक्ष का मूल है। जो व्यक्ति इसके फलों को चखता है वह क्लेश का माजन बनता है। आस्रव भाव संसार परिभ्रमण का कारण है। इसके रहते प्राणी सद-असद के विवेक से शून्य रहता है। आस्रव भावना के चिन्तन से आत्म-विकास होता है परिणामस्वरूप जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो आत्मा अक्षय अव्याबाध सूख मोक्ष प्राप्त करती है। (८) संवर भावना आस्रव का अवरोध संवर है। जैसे द्वार बन्द हो जाने पर कोई घर में प्रवेश नहीं कर सकता है वैसे ही आत्मपरिणामों में स्थिरता होने पर, आस्रव का निरोध होने पर आत्मा में शुभाशुभ कर्म नहीं आ सकते । आत्मशुद्धि के लिये कर्म के आने के मार्गों को रोकना आवश्यक है अतः व्रतप्रत्याख्यान रूप संवर को धारण करने की भावना आना ही संवर भावना है। संवर भावना से जीवन में संयम तथा निवृत्ति की वृद्धि होती है। (६) निर्जरा भावना तपस्या के द्वारा कर्मों को दूर करना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की होती है-अकाम और सकाम । अकाम निर्जरा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी कर सकते हैं। ज्ञानपूर्वक तपस्यादि के द्वारा कर्मों का क्षय करना सकाम निर्जरा है। अज्ञानपूर्वक दुखों का सहन करना अकाम निर्जरा है। दुष्ट वचन, परीषह, उपसर्ग और क्रोधादि कषायों को सहन करना, मानापमान में समभाव रखना, अपने अवगुण की निन्दा करना, पांचों इन्द्रियों को वश में रखना निर्जरा है। इसी प्रकार के शुद्ध विचार निर्जरा भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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