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________________ जैनदर्शन में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व डा० नरेन्द्र भानावत एम० ए०, पी-एच० डी० ( हिन्दी प्राध्यापक, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर) जैन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीनों आरों में- जीवन अत्यन्त सरल एवं प्राकृतिक था । तथाकथित कल्प वृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी । यह अकर्मभूमि – भोगभूमि - का काल था । पर तीसरे आरे के अन्तिम पाद में कालचक्र के प्रभाव से इस अवस्था में परिवर्तन आया और मनुष्य कर्मभूमि की ओर अग्रसर हुआ । उसमें मानव सम्बन्धपरकता का भाव जगा और पारिवारिक व्यवस्था — कुल व्यवस्था – सामने आई । इसके व्यवस्थापक कुलकर या मनु कहलाये जो विकास क्रम में चौदह हुए । कुलकर व्यवस्था का विकास आगे चलकर समाजसंगठन, धर्मसंगठन के रूप में हुआ और इसके प्रमुख नेता हुए २४ तीर्थंकर तथा गौण नेता ३६ अन्य महापुरुष ( १२ चक्रवर्ती, & बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव) हुए जो सब मिलकर त्रिषष्ठि शलाका पुरुष कहे जाते हैं । उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि जैन दृष्टि से धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं है, वह सामाजिक आवश्यकता और समाज व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। जहाँ वैयक्तिक आचरण को पवित्र और मनुष्य की आंतरिक शक्ति को जागृत करने की दृष्टि से क्षमा, मादेव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे मनोभावाधारित धर्मों की व्यवस्था है, वहाँ सामाजिक चेतना को विकसित और सामाजिक संगठन को सुदृढ़ तथा स्वस्थ बनाने की दृष्टि से ग्रामघर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म जैसे समाजोन्मुखी धर्मों तथा ग्राम स्थविर, नगर स्थविर, राष्ट्र स्थविर, प्रशास्ता स्थविर, कुल स्थविर, गण स्थविर, संघ स्थविर जैसे धर्म नायकों की भी व्यवस्था की गई है। इस बिन्दु पर आकर 'जन' और 'समाज' परस्पर जुड़ते हैं और धर्म में निवृत्ति प्रवृत्ति, त्याग सेवा और ज्ञान-क्रिया का समावेश होता है । यद्यपि यह सही है कि धर्म का मूल केन्द्र व्यक्ति होता है क्योंकि धर्म आचरण से प्रकट होता है पर उसका प्रभाव समूह या समाज में प्रतिफलित होता है ओर इसी परिप्रेक्ष्य में जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्वों को पहचाना जा सकता है । कुछ लोगों की यह धारणा है कि जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना की अवधारणा पश्चिमी जनतन्त्र - यूनान के प्राचीन नगर राज्य और कालान्तर में फ्रांस की राज्य क्रान्ति की देन है । पर सर्वथा ऐसा मानना ठीक नहीं । प्राचीन भारतीय राजतन्त्र व्यवस्था में आधुनिक इंगलैण्ड की भाँति सीमित व वैधानिक राजतन्त्र से युक्त प्रजातन्त्रात्मक शासन के बीज विद्यमान थे । जनसभाओं और विशिष्ट आध्यात्मिक ऋषियों द्वारा १ स्थानांग सूत्र, दसवां ठाणा विशेष विवेचन के लिए देखिए -आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज कृत 'धर्म और धर्मनायक' पुस्तक | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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