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________________ भारतीय तत्त्व- चिन्तन में जड़-चेतन का सम्बन्ध कार्य-कारणवाद भारतीय दर्शनशास्त्र एवं चिन्तन में यह स्वीकार किया है, कि कार्य कारण से उत्पन्न होता है । कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। यदि बीज नहीं है, तो उसका कार्य वृक्ष भी नहीं होगा । इसलिए आचारांग सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने कहा कि यदि तुमको संसार रूप वृक्ष का उन्मूलन करना है, तो उसके पत्तों, डालियों एवं शाखाओं को नहीं, उसके मूल का नाश करना होगा। संसार या कर्मबन्ध का मूल या बीज राग-द्वेष है । वही संसार परिभ्रमण का मूल कारण है । कारण के बिना कार्य कभी भी उत्पन्न नहीं होता । जैसे घट कार्य है, तो मिट्टी उसका मूल कारण और कुम्भकार, चक्र आदि सहयोगी या निमित्त कारण है । अतः मिट्टी एवं कुम्भकार आदि का सद्भाव होने पर ही घट कार्यरूप में परिणत होता है । इसी प्रकार यह संसार, यह विराट् जगत और विशाल सृष्टि भी एक कार्य है, इसलिए इसका भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । वद-युग इस विचित्र जगत को देखकर वैदिक ऋषियों के मन में इसके मूल कारण एवं सृष्टा को जानने की जिज्ञासा उबुद्ध हुई। उन्होंने अपने-अपने चिन्तन के अनुरूप विभिन्न कारणों की कल्पना की । किसी ने जल को, किसी ने अग्नि को और किसी ने वायु को जगत का मूल कारण माना उनकी मान्यता के अनुसार सर्वप्रथम जल या अग्नि या वायु ही था, और धीरे-धीरे उसी मूल तत्त्व से सब पदार्थ बने । वेद-युग में हम देखते हैं कि विचारकों का चिन्तन प्रकृति की शक्तियों तक ही सीमित परिमित रहा। उन्होंने इन प्राकृतिक शक्तियों को ही सब कुछ मान लिया और उन्हें देवत्व के स्थान पर बैठाकर अपने संरक्षण एवं विकास के लिए उनसे प्रार्थना करने लगे । यह सत्य है, कि वेदयुग में ही अनेक देवों का स्थान एक शक्ति ने ग्रहण कर लिया था। ऋग्वेद में यह उल्लिखित है कि जगत का मूल कारण एक तत्त्व है । उस एक तत्त्व को मनीषी एवं विद्वान अग्नि, जल, वायु आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। उसके बाद प्रजापति की कल्पना की, और उसी को सृष्टि का मूल कारण और सृष्टा स्वीकार कर लिया । २६१ उपनिषद्-युग उपनिषदों में विभिन्न विचारकों के मतों का उल्लेख किया गया है। अग्नि आदि प्राकृतिक शक्तियों को मूल तत्त्व मानने का भी उल्लेख उपनिषदों में है । परन्तु चिन्तन की गहराई में उतरने पर उपनिषद्-युग के ऋषियों ने ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया। कठोपनिषद् में कहा गया, कि यह जगत अश्वत्थ (पीपल) का वृक्ष है । जिसका मूल उर्ध्व में है, और शाखाएं नीचे की ओर हैं । यह विचित्र संसार वृक्ष सनातन है, शाश्वत है और इसका जो मूल है—वही ब्रह्म है, विशुद्ध ज्योतिस्वरूप तत्त्व है और अमृत है । सम्पूर्ण लोक या जगत उसी में आश्रित है, कोई भी उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता है। वही जगत का मूल तत्त्व एवं मूल कारण है, जिसमें से जगत अस्तित्व में आया है। आचार्य शंकर ने भी जगत को ब्रह्म का विवर्त कहा है । परन्तु उपनिषदकार ने स्पष्ट लिखा - इस आत्मा से सर्वप्राण, सर्वलोक और सर्वभूत जिसमें प्रकट होते हैं, उस आत्मा का रहस्य सत्य का सत्य है, परम सत्य है । उपनिषद् की दृष्टि से जिस जगत में रहकर हम जीवनयात्रा करते हैं, वह जगत हमारे अपने अस्तित्व के समान ही सत्य है । जैन दर्शन भी जगत को १ अग्गं मूलं च छिदइ । २ कठोपनिषद्, २, ३, १; गीता १५, १ । ३ वृहदारण्यक उपनिषद्, २, १, २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only -आचारांग www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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