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________________ भारतीय तत्त्व - चिन्तन में : जड़-चेतन का सम्बन्ध मुनि समदर्शी, प्रभाकर जगत का स्वरूप सम्पूर्ण भारतीय वाङ् मय, तत्त्व-चिन्तन एवं आगम - वेद उपनिषद्, जैन - शास्त्र, और पालित्रिपिटक का सार एवं निष्कर्ष तीन शब्दों में आ जाता है— जीव, जगत और जगदीश्वर अर्थात् परमात्मा । सभी विचारकों ने संसार, संसार में परिभ्रमण के कारणों एवं उससे मुक्त होने के साधनों का प्रतिपादन किया है । संसार-बन्धन से सर्वथा मुक्त होना ही भारतीय चिन्तन का मुख्य उद्देश्य, ध्येय एवं लक्ष्य रहा है । सम्पूर्ण आध्यात्मिक साहित्य में - भले ही वह जैन- परम्परा का हो, वैदिक परम्परा का हो, बौद्ध परम्परा का हो, और कितना ही विशाल क्यों न हो- ग्यारह अंग ही नहीं, चतुर्दश पूर्व-साहित्य को भी लें तो उनमें विभिन्न प्रकार से, विभिन्न दृष्टांतों, उदाहरणों, रूपकों एवं कथानकों के माध्यम से यही समझाने का प्रयत्न किया है, आत्मा और संसार या जड़ और चेतन का क्या स्वरूप है, का संसार में परिभ्रमण करने का क्या कारण है, और वह सकता है ? कि जीव और जगत अथवा उनका परस्पर क्या सम्बन्ध है, आत्मा किस प्रकार आबद्ध बन्धन से मुक्त हो ये ही मूल प्रश्न हैं ? जिनका समाधान सभी मनीषी विचारकों और प्रबुद्ध चिन्तकों ने अपने-अपने चिन्तन एवं अनुभव के अनुरूप करने का प्रयत्न किया है। उनके उन्हीं विचारों का संग्रह और संकलन आगम, उपनिषद् एवं त्रिपिटक - साहित्य में है । प्रस्तुत प्रकरण में हम यही विचार करेंगे, कि जीव और जगत, आत्मा और संसार, तथा जड़ और चेतन के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में विभिन्न विचारकों ने किस प्रकार से चिन्तन किया तथा उनके विचारों में कितना साम्य एवं कितना वैषम्य है । सभी विचारकों ने किसी न किसी रूप में जीव और जगत—दोनों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जड़ और चेतन के अस्तित्व से युक्त संसार को जगत कहा है। सांख्य दर्शन जगत में मुख्य रूप से दो तत्त्व मानता है— प्रकृति और पुरुष । न्याय-वैशेषिकदर्शन आत्मा और परमाणु को मानता है । बौद्ध दर्शन इसे नाम और रूप कहता है । जैन दर्शन जीव और अजीव- इन दो द्रव्यों को ही मुख्य मानता है । इन दो द्रव्यों में षट् द्रव्य आ जाते हैंजीव अथवा आत्मा जीव द्रव्य है ही, शेष धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल - पाँचों द्रव्य जीव से मित्र अजीव है, अचेतन हैं, जड़ है। अद्वैत वेदान्त दर्शन केवल ब्रह्म की सत्ता को ही सत्य मानता है, अन्य किसी भी पदार्थ के अस्तित्व को सत्य स्वीकार नहीं करता । फिर भी प्रत्यक्ष में परिलक्षित होने वाले पदार्थों को झुठला नहीं सकता, इसलिए उसने माया की कल्पना की । कुछ भी हो जगत में द्वेत — दो तत्त्वों की सत्ता है, और द्वैत के आधार पर ही जगत एवं संसार आधारित है, टिका हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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