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________________ मालव-संस्कृति में धार्मिकता के स्वर २६५ क्षत्रिय कहलाता है, वैश्य के कर्म द्वारा ही वैश्य होता है, शूद्र भी कर्म से ही होता है। सार्वभौमिक कल्याण की विराट् भावना जैन संस्कृति की आधारभूमि है। अतएव इसका व्यापक महत्त्व सर्वत्र स्वीकृत है । सन्त कबीर ने जातिवाद को कपोल कल्पित माना है और पूछा है-तुम कैसे ब्राह्मण हो गये और हम शूद्र कैसे कहलाये; हम कैसे खून रह गये, और तुम कैसे दूध हो गये ?२ ___ जैन संस्कृति की यही गरिमा और यही इसकी विशिष्ट उपलब्धि है कि इसमें प्रत्येक जीव के कल्याण की साँसें जीवित हैं, उद्वेलित हैं। यह पुनीत एवं प्राचीनतम श्रमण संस्कृति है जो विराट् विश्व के कल्याण को सर्वोपरि मानती है तथा आत्मोद्धार में ही उल्लसित होती रहती है । कर्म को प्रधानता देकर जन-जन को इसने सजग बनाया है । संघर्षों से जूझने की अपार शक्ति भी दी है। सर्वोत्तम जन्म मानव है । अतएव विषय वासना से दूर रहकर आत्म-कल्याण की ओर सदा श्रद्धा और तन्मयतापूर्वक प्रयत्नशील रहना चाहिए। यही अध्यात्मवाद है। यही अन्तरात्मा का वास्तविक स्वरूप है और यही नरभव का साफल्य है। जैन कवियों ने एवं आचार्यों ने अपने काव्य की इसी दृष्टिकोण से सफलता आँकी है। मालवा में धार्मिकता के स्वर पीयूष की भांति जन-जन की कल्याणकारिणी मालव संस्कृति बड़ी निर्मल, धार्मिक, उदात्त, उर्वर, कला परिपूर्ण एवं सिद्ध सन्त प्रश्रयदायिनी तथा साधनास्थली रही है । वस्तुतः भाव सौन्दर्य, कलात्मकता, प्राकृतिक सुन्दरता, नैसर्गिक मनोरमता, थिरकती सौम्यता तथा पारस्परिक समन्वयता उसी धरा की गोद में अधिक प्रतिष्ठित होती है, जहाँ जीवन की सुविधाएँ उन्मुक्त अवस्था में प्राप्त हों। मालव-भूमि इस सन्दर्भ में प्रणम्य और पूजित हैं तथा विविध साहित्य प्रशंसित भी है। सर्वधर्मसम्मेलन यहाँ जैन, बौद्ध, वैष्णव, शाक्य, शैव आदि अनेक धर्म फले-फूले हैं। चंडप्रद्योत युगीन उज्जयिनी, मौर्य युगीन उज्जयिनी, शुंग शक विक्रमादित्य-शातवाहन युगीन उज्जयिनी, गुप्त तथा हर्षवर्धन युगीन उज्जयिनी, प्रतिहार और परमार युगीन उज्जयिनी आदि शीर्षक अध्यायों में डाक्टर शोभा कानूनगो ने अपने प्रकाशित शोध प्रबन्ध 'उज्जयिनी का सांस्कृतिक इतिहास' में सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि मालवा में अनेक धर्मसम्प्रदाय विभिन्न शासकों के शासनकाल में पुष्पित और फलित हुए हैं। उक्त धर्मों का १ कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा । २ तुम कत ब्राह्मन, हम कत सूद । हम कत लोहू, तुम कत दूध ।। (उत्त० २५/३३) (कबीर ग्रन्थावली) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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