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________________ २३० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मुनि सुव्रतनाथ, नेमिनाथ के साथ ही सर्वाधिक पार्श्वनाथ एवं महावीर की प्रतिमाएँ हैं। पद्मासन में ध्यानस्थ पार्श्वनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा है जिसके दोनों ओर यक्ष तथा यक्षिणी हैं । इनकी देहयष्टि आकर्षक है। हाथी पर राजपुरुष, चंवरधारी इत्यादि हैं । यह गुना से लायी गयी है। प्रतिमा को सप्तफण छाया किए हैं। पार्श्वनाथ की यहाँ ६४ प्रतिमाएँ हैं । जैन देवियों की भी यहाँ अनेक सुन्दर प्रतिमाएँ हैं। बदनावर की चक्रेश्वरी प्रतिमा अपनी भग्नकाया में भी अद्वितीय है। इन प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षी, नाग, वृक्ष इत्यादि का भी मनोहर अंकन हुआ है। परमार युग में कला एवं साहित्य के मर्मज्ञ नृपों की मालवा में अद्वितीय परम्परा रही है जिनमें मूर्धन्य भोज का कलाबोध परवर्ती युग में भी अपमान बन गया-बोधे कलानां नव भोजराजः । इस भोज ने अनेक मन्दिर तथा उनमें प्रतिमाएँ स्थापित करवाईं जिनका अभिज्ञान असम्भव हो रहा है। केवल पूर्वोक्त वाग्देवी प्रतिमा उसके कलाबोध का प्रमाण बन जाती है। भोज अपने शृगार प्रकाश में प्रतिमा की सौम्य काया के सृजन पर बल देता है। वह यह भी मानता है कि ऐसी प्रतिमा की रचना सरल नहीं है सौम्या मूर्तिः प्रतिमाया इति । अहो दु:खं रूपं लेख्यस्य । करुणापूरित अंकन भी उस काल में कम आकर्षक नहीं होते थे। पाषाण पर वासुदेव का उत्कीर्णन, पूर्वोक्त सुस्तनी प्रतिमाओं का उभार, भित्ति पर कामदेव की रचना एवं ध्वज पर हनुमान का आलेख.......सबकी ओर भोज का संकेत हुआ है । १२ (शृंगार प्रकाश, पृ० २०४)। ऐसे कलापारखी राजा की रचना शृगारमंजरी कथा में भी कला सम्बन्धी अद्भुत सामग्री भरी है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार कलाकोष के निर्माण में इस कृति का कम महत्त्व नहीं रहेगा । ऐसे भोज तथा उसकी रसिक वंशमाला के राज्यकाल में यदि ग्रन्थों तथा भवनों के समान अनन्त-अनन्त आकर्षक मूर्तियां भी रची जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं । पुनः परमार युग तो जैनधर्म को भी उतना ही आदर देता था जितना ब्राह्मण धर्म को। उस काल में सब धर्मों को सम्यक् राज्याश्रय प्राप्त था। यही कारण है कि इस काल में सब धर्मों से सम्बद्ध हर प्रकार की मनोहर मूर्तियों का सृजन हुआ। यह वह काल है जब इतर प्रदेशों में भी मूर्तिकला के प्रति आकस्मिक अपेक्षाभाव आगया था। यद्यपि इस काल में अन्यत्र भी मूर्ति रचना हुई पर जिस मात्रा तथा जिस आकर्षण से युक्त मालवा में मूर्तियां रची गयीं। वह न इससे पूर्व दिखाई देती है एवं न बाद में। भारतीय मूर्तिकला को मालवा के दाय का यह संक्षिप्त सर्वेक्षण व्यक्त करता है ११ मालवा : एक सर्वेक्षण, पृ० ६५ १२ द्रष्टव्य-लेखक का लेख, भोज का कलाबोध, मध्यप्रदेश सन्देश, ७ जून १९७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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