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________________ प्राप्त हुआ था । उसके पश्चात् तो अनेक बार आपश्री के साथ में रहने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ । मुझे आपका हंसमुख चेहरा, लम्बा कद, गौर वर्ण, शरीर बड़ा ही सुन्दर लगता है । आपके प्रसन्न वदन पर कभी भी म्लानता देखना मुश्किल है। आप पिछली रात में स्वाध्याय ध्यान में अपना समय व्यतीत करते हैं । आपका जीवन संयमी प्रवृत्ति में रहते हुए घुमक्कड़ है । मैंने देखा जहाँ तक मैंने अनुभव किया है, प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज का संयमी जीवन जितना सीधा, सरल, साफ है, उतना ही स्पष्ट अभिव्यक्ति का प्रतीक भी रहा है । आपको छल, प्रपंच, मायाचार, ढकोसला करना, दिखावा कतई पसन्द नहीं है । आप साफ-साफ कहते हैं कि साधक को श्रद्धाचन १२३ आपने पंजाब, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि अनेक क्षेत्रों में विचरण किया एवं चातुर्मास किये । आपश्री को अजमेर सम्मेलन में प्रवर्तक पद से सुशोभित किया गया है । आपश्री को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने का जो संघ ने निर्णय किया है । यह संघ का कर्त्तव्य है । Jain Education International आपश्री दीर्घायु होकर समाज को मार्ग-दर्शन दें, यही मेरी शुभकामना है । श्र द्धा चं न कविरत्न श्री केवल मुनि दुहरा जीवन नहीं बिताना चाहिए। क्योंकि दुहरे जीवन में आत्मिक जीवन की वास्तविकता पर काषायी भाव छा जाते हैं । इसीलिए साधक को सरल होना चाहिए | हार्दिक अभिनन्दन के लिए मुझे प्रसन्नता हो रही है कि आप दीर्घजीवी बनकर समय-समय पर हमें विचार- रत्न दिया करें । स्नेह की जीती जागती प्रतिमा : प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज देवेन्द्र मुनि शास्त्री 'साहित्यरत्न' वैज्ञानिकों का मानना है कि विश्व में जितने भी रत्न हैं उन सबमें हीरा बहुमूल्य है। हीरा को हीरा बनने के लिए खदान में अत्यधिक ऊष्मा को सहन करना पड़ता है । कोयला ही अन्त में हीरा बनता है । जिसमें ऊष्मा को सहन करने की क्षमता नहीं है वह काला कलूटा कोयला ही बना रहता है । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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