SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आशीर्वचन १२१ ___सच भी है कि-'हीरा' प्रथम दर्शन मुनि की भी सेवा का अवसर आ जाए में अप्रभावक ही होता है किन्तु जो पैनी तो नि:संकोच उसकी परिचर्या में मग्न दृष्टि उसकी आन्तरिक चमक को पहचान हो जाएंगे। लेती है वह फिर उसे साधारण समझने की प्रबल विरोधी से भी हँसकर मिल भूल नहीं करती। लेने की क्षमता रखने वाले श्री हीरालाल । श्री हीरालालजी महाराज भी साधा- जी महाराज सचमुच दिवाकर गच्छ के रण से दिखाई देकर भी अन्तर से बड़े ही नहीं श्रमण संघ के भी एक हीरे हैं। असाधारण हैं। सर्वदा मेलजोल को पसंद अभिनन्दन के शुभावसर पर मैं शुभकरने वाले श्री हीरालालजी महाराज कामना प्रगट करता हैं कि-संघ का हँसमुख और खुले विचारों के मुनिराज हैं। यह चमकदार हीरा' आगामी कई वर्षों हम जब-जब भी मिले हैं, बड़े प्रेम तक अक्षुण्ण रहकर अपने ज्ञानादि गुणों और आत्मीयता से । नम्रता तो फिर आप की चमक से जिनशासन को प्रकाश पूर्ण में अनोखी ही देखने को मिली, यदि लघु बनाता रहे। प्रवर्तक-पूज्य श्री हीरालालजी महाराज : मेरी दृष्टि में __] राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी पूज्य प्रवर्तक श्री हीरालाल जी महा- आचरण सभी सरल है। कपट करना तो राज स्थानकवासी जैन समाज के एक उन्हें आता ही नहीं है। उनका जीवन विचारक, आगमों के ज्ञाता, संगठन के प्रेमी खुली पुस्तक की तरह है । उसका हर सन्त प्रवर हैं। पृष्ठ कोई भी पढ सकता है। आपश्री से अनेक बार मिलने का आप मधुर प्रवक्ता हैं, आपके प्रवचनों अवसर मिला है, आपसे अनेक विषयों में दार्शनिक गुत्थियां नहीं होती और न पर विचार-चर्चा करने का भी मौका सांस्कृतिक समस्या ही होती हैं। धर्म और मिला है। विचार-चर्चा में जब मैंने आगम जीवन सम्बन्धी बातें होती हैं। जिन्हें के अकाट्य तर्क प्रस्तुत किये तो आपश्री रूपकों, दृष्टान्तों के माध्यम से जन साधाने स्वीकार करने में संकोच नहीं किया। रण को समझाने का संलक्ष्य होता है यही मुझे ऐसा लगा कि यही तो महापुरुष कारण है कि आबाल-वृद्ध के लिए आपके का महान गुण है, जिसे अपनी बात का प्रवचन बहुत ही उपयोगी होते हैं। आग्रह नहीं होता, और सत्य-तथ्य ज्ञात आपश्री सुदीर्घकाल तक स्वस्थ और होने पर उसे स्वीकार करने में किञ्चित्- प्रसन्न रहकर जैनधर्म की प्रभावना करते मात्र भी संकोच नहीं होता। "तमेव रहें यही मेरी हार्दिक मंगल कामना है। सच्चं निसंकं जं जिणेहि पवेइयं" ही उनके आपश्री का अभिनन्दन ग्रन्थ निकाल कर जीवन का आघोष होता है। समाज ने अपने कर्तव्य को निभाया है प्रवर्तकश्री के जीवन की सबसे बड़ी इसकी मुझे प्रसन्नता है । विशेषता है कि उनका मन, वाणी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy