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________________ जीवन दर्शन ६५ ___ अन्य के बढ़ते हुए प्रभाव को भले साधक हो कि संसारी उसे पचा कहाँ पाते हैं ? जोधपुर के इस ऐतिहासिक वर्षावास से आस-पास के कतिपय साम्प्रदायिक तत्त्व मन-ही-मन तिलमिला उठे। बढ़ते हुए प्रभाव को किस प्रकार से क्षीण किया जाय ? उस मौके की ताक में थे कि ऐसे ही अवसर पर वहाँ एक अवांछनीय घटना घटित हो गई। उस घटना की ओट में वे साम्प्रदायिक शक्तियाँ उठ खड़ी हुईं। घटना-क्रम को समझे बिना मिथ्या चोला पहनाकर उस शांत-स्वच्छ वातावरण को दूषित करने में जुट गये। फिर भी चरित्रनायक श्री जी का साहस अडिग रहा । अंततोगत्वा चातुर्मास पूरा हुआ। छोटे-मोटे गाँव-नगरों में घूमते हुए मुनि-मण्डल का आगमन पीपाड़ हुआ। वहां राजस्थानकेशरी प्र० श्री पुष्कर मुनिजी महाराज अपने शिष्य परिवार से विराज रहे थे। आचार्यश्री आनन्द ऋषिजी महाराज साहब की अनुमति प्राप्त किये बिना आपने, प्रवर्तकश्री हीरालालजी महाराज के साथ केवल शिष्टाचार का ही व्यवहार रखा। जिसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि श्रमण संघीय मुनियों में असहयोग अस्नेह एवं बिखराव की स्थिति का निर्माण हुआ। समस्या को समझने की कोशिश करते और दीर्घ-दृष्टि से प्रतिक्रियावादी कार्य करते तो मेरी समझ में आज अनैक्यता का वातावरण नहीं बनता।। ___ व्यक्तित्व के आईने में सरलता के धनी "भद्दएणेव होअव्व पावइ भद्दाणि भद्दओ।" (उत्तराध्ययननियुक्ति० ३२६) साधक को सरल होना चाहिए। भद्र को ही कल्याण की प्राप्ति होती है। चरित्रनायक जी के उभयपक्षी जीवन का मूल्यांकन मेरे जैसा साधारण साधक क्या करेगा ? क्या परखेगा ? फिर भी विगत इन कुछ वर्षों से आपके कल्याणकारी सान्निध्य में रहने का एवं यत्किंचित् सेवा-शुश्रूषा करने का सुनहरा अवसर इस सेवक को मिला है। आप अति सरल-भद्र, सौम्य-शांत-स्वभाव के साधक हैं। सदा खिली हुई मुख मुद्रा सभी दर्शनार्थियों के लिए आकर्षण एवं श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई है। वाणी और व्यवहार में जितनी सरलता दृष्टिगोचर होती है, साधक जीवन के आदर्श के रूप में उतना ही आप में कथनी और करनी का सामञ्जस्य हुआ है। भले बालक-युवक-वृद्धविद्वान् या अनपढ़ मानव कोई भी क्यों न हो? सभी के साथ उसी प्रमोद एवं सरल भाव से बातचीत करेंगे एवं मिष्टवाणी द्वारा सावधान भी । बाह्य और आंतरिक जीवन की एकरूपता की मंद-मंद मंदाकिनी हमेशा सामाजिक क्षेत्रों को प्लावित करती हुई प्रतीत होती है। आपके जीवन के कण-कण में छल-प्रपंच-मायाचार एवं कापट्यपूर्ण व्यवहार को स्थान नहीं है । आप कहा करते हैं कि "जो करना सो अच्छा करना, फिर दुनिया में किससे डरना ?" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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