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________________ ७६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ परम-प्रणम्य, करुणावतार, ज्योतिर्मय-ज्योतिविद्, युग-श्रमण महास्थविर, मालवरत्न, पूज्यपाद गुरुवर्य श्री कस्तूरचन्द जी महाराज के पावनतम चरण-कमलों में सादर, सश्रद्धा, सवन्दना समर्पित यशःप्रशस्ति-पत्र धर्मगगन के ज्योतिपुंज ! यशस्वी, मनस्वी तपस्वियों की अमल-धवल धरा, पुण्य प्रभामय भारत के हृदय स्थल, श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन जगत के तीर्थोपम धर्मधाम रश्मिरम्य रत्नपुरी रतलाम के प्रशस्तप्रांगण में आज आचार्य श्री मन्नालाल जी महाराज के सुखद शताब्दी समारोह एवं आपश्री के अनुपम-अमृत-महोत्सव के मंगलमय सुअवसर पर चतुर्विध श्रीसंघ की आत्मिक भावाभिव्यक्ति के रूप में प्रशस्ति-पत्र आपश्री के पुनीत पाद-पद्मों में समर्पित करते हए अपार आत्मतोष एवं अनन्त परमानन्द की अपूर्व आत्मानुभूति सहज ही हो रही है । स्थितप्रज्ञ महामनीषो ! रत्नोपम रतलाम जिले की ज्वाज्वल्यमान नगरी जावरा ने आप जैसे महान स्थितप्रज्ञ महामनीषी को जन्म देकर इतिवृत्त में यह सिद्ध कर दिया है कि भारत के सामान्य लघुतम क्षेत्र भी धर्मोन्नायक सन्तप्रवर को अवतरित करने का महान् गौरव अजित कर सकते हैं। ओसवाल कुलावतंस परम श्रेष्ठ श्री रतिचन्द्र जी चपलोत एवं पुण्यश्लोका सुमन-मना, निश्छल हृदया श्रीमती फूलाबाई जैसे धर्मनिष्ठ श्रावक-श्राविका की कुलीन-कुक्षि में अवतरित एवं सुसंस्कारित होकर आपश्री ने तीर्थंकरों के अमिट चरण-चिन्हों का अनुसरण करने का कठोर व्रत अंगीकार किया तथा अनगार धर्म, श्रमण संस्कृति एवं जैन-संसृति की शाश्वत सेवा का अनन्तपंथ सोल्लास अपनाया; यह अविस्मरणीय, अभिनन्दनीय एवं चिरवन्दनीय है। अनगार-धर्म के पावन-प्रतीक! कार्तिक शुक्ल १३ गुरुवार विक्रम सम्वत् १९६२ की अरुणाभ किरण-बेला में आपश्री ने रामपुरा के निसर्गरम्य प्राकृतिक प्रांगण में श्री हुक्मेश गच्छीय षष्ठ पट्ट अधीश्वर श्री मज्जैनाचार्य शासन-प्रभाकर पूज्यपाद श्री खूबचन्दजी महाराज के सुसान्निध्य में भागवती दीक्षा अंगीकार कर आजीवन अनगारधर्म के प्रबल-प्रसार का अभिव्रत धारण किया एवं अपने साधनाशील मुनि-जीवन के अनुकरणीय ६५ वर्ष व्यतीत होने पर भी आज भी आपश्री अनिश आध्यात्मिकता के अमर मार्ग के अरूक पथचारी बने हुए अनेक पथ-भ्रान्त पथिकों को अपने दिव्य भव्य सन्त जीवन की आलोक रश्मियों से धर्मोचित मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं। श्रमणधर्म के गौरवशाली इतिवृत्त में आपका तप-त्याग साधनामय जीवन एक प्रेरक परिच्छेद बन कर जुड़ गया है। सौम्यमूर्ति अजातशत्रु ! संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं के अभिज्ञाता, जैनागमों के मर्मज्ञ एवं ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित के रूप में आपश्री की ज्ञानगरिमा चिर अक्षुण्ण है। आपश्री के उपदेशामत का रस पान कर, मालवा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, उत्तर-प्रदेश आदि क्षेत्रों के श्रावकवृन्द, तत्त्वबोध, धर्म-मर्म एवं शाश्वत ज्ञान की अमर कुजी प्राप्त कर श्रमण धर्म की चिरन्तन श्रीवृद्धि में तन्मय हो चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012006
Book TitleMunidwaya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni, Shreechand Surana
PublisherRamesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP
Publication Year1977
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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