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________________ ६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ खण्डनके लिए अनेक शास्त्रोंकी रचना की । इस तरह वह समय सभी दर्शनोंका अखाड़ा बन गया था। सभी दार्शनिक एक दूसरेको परास्त करने में लगे थे। इस सबका आभास उस कालमें रचे एवं उपलब्ध दार्शनिक साहित्य से होता है। इसी समय जैन परम्परामें दक्षिण भारतमें महामनीषी समन्तभद्रका उदय हुआ, जो उनकी उपलब्ध कृतिओंसे प्रतिभाशाली और तेजस्वी पाण्डित्यसे युक्त प्रतीत होते हैं। उन्होंने उक्त दार्शनिकोंके संघर्षको देखा और अनुभव किया कि परस्परमें एकान्तोंके आग्रहसे वास्तविक तत्त्व लुप्त हो रहा है। सभी दार्शनिक अपने-अपने पक्षाग्रहके अनुसार तत्त्वका प्रतिपादन करते हैं । कोई तत्त्वको मात्र भाव ( अस्तित्व ) रूप, कोई अभाव ( नास्तित्व ) रूप, कोई अद्वैत ( एक ) रूप, कोई द्वैत ( अनेक ) रूप, कोई शाश्वतरूप कोई अशाश्वतरूप, कोई पृथक् ( भेद) रूप, कोई अपृथक् ( अभेद ) रूप मान रहा है, जो तत्त्व ( वस्तु ) का एक-एक अंश है, समग्र रूप नहीं । इस सबकी झलक उनकी 'आप्तमीमांसा' में मिलती है। उसमें उन्होंने इन सभी एकान्त मान्यताओंको प्रस्तुत कर उनका समन्वय किया है इसका विस्तृत विवेचन उनके ग्रन्थोंसे किया जा सकता है। यद्यपि श्रमण और श्रमणेतरोंके वादोंकी चर्चा दृष्टिवादमें उपलब्ध है । किन्तु समन्तभद्रके कालमें वह उभरकर अधिक आई। समन्तभद्रने किसीके पक्षको मिथ्या बतलाकर तिरस्कृत नहीं किया, अपितु उन्हें वस्तुका अपना एक-एक अंश ( धर्म ) बतलाया । वक्ता जिस धर्मकी विवक्षा करेगा वह मुख्य हो जायेगा और शेष धर्म गौण । इस तरह समन्तभद्रने वस्तुको अनंतधर्मा सिद्ध करके स्याद्वादके द्वारा समस्त विवादोंको शमित किया। इसके सिवाय प्रचलित एकान्तवादोंका स्याद्वादन्याय द्वारा अपनी कृतियोंमें ही समन्वय नहीं किया, अपितु भारतके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरके सभी देशों व नगरोंमें पदयात्रा करके वा शास्त्रार्थ भी किए। और उनके एकान्तोंको स्याद्वादन्यायसे समाहित किया। उदाहरणके लिए श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) का एक शिलालेख न० ५४ यहाँ दे रहे हैं : पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क विषये काँचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकट, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। इस पद्यमें समन्तभद्रने स्पष्ट कहा है कि “हे राजन् ! मैंने पहले पाटलिपुत्र ( पटना ) नगरमें वादके लिए भेरी बजाई और वहाँके वादिओंके साथ वाद किया। उसके पश्चात् मालव, सिन्ध, ठक्क (पंजाब), कांचीपर और बैदिश ( विदिशा ) में वादिओंको वादके लिए आहूत किया और अब करहाट में विद्याभिमानी वादिओंको सिंहकी तरह ललकारा है।" समन्तभद्र वादा के अतिरिक्त एक अन्य प्रसंगमें किसी राज सभामें अपना परिचय भी देते हैं : आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पंडितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तांत्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायाभिलाया माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहं ।। इसमें कहा है कि "हे राजन् ! मैं आचार्य हूँ, मैं कवि हूँ, मैं वादिराट् हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं दैवज्ञ हूँ, मैं भिषग हूँ, मैं मान्त्रिक हूँ, मैं तान्त्रिक हूँ और तो क्या मैं इस समुद्रवलया पृथ्वी पर आज्ञासिद्ध हूँ, जो आदेश दूं वही होता है । तथा सिद्धसारस्वत हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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