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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३९१ जिन शब्दोंके पीछे जितने अधिक समर्थ पुरुषोंका साधनाबल रहता है वे दूसरे साधकों को उतने ही शीघ्र मनकी एकाग्रता करके अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं । यही मन्त्रसामर्थ्यका रहस्य है । आप शीघ्र जाकर चौलुक्याधिपतिको यहाँ लिवा लाइए । इतने में ही सपरिकर चौलुक्याधिपति स्वयं आकर नमस्कार करके मुनिराज से बोले मुनिवर - चण्डशर्माको शाप दिए हुए आठ मुहूर्त व्यतीत हो गए, पर अभी तक तो पातालमें जाने जैसी बात नहीं दीखती । फिर भी मेरा मन भावी अनिष्टकी आशंकासे विचलित सा हो रहा है । जटिलमुनि - राजन्, आप चिन्ता न करें । आप क्षत्रिय परम्पराको स्वीकार करनेवाले दृढ़परिकर्मा वीर पुरुष इन अन्धविश्वासों को छोड़ें और अपने क्षात्रवीर्यको स्मरण करें तथा मनसे हिंसा और द्वेषबुद्धि निकालकर जगत् कल्याणकी सर्वभूतमैत्रीकी भावना भावें । उस अनुपम आत्मरसमें विभोर होकर अब आप मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावमें लीन होंगे तब इन कषायाविष्ट पामर-जनोंकी शक्ति अनायास ही कुण्ठित हो जायगी । आप समस्त विकल्पोंको त्यागकर निराकुल होइए और परम अहिंसक भावोंकी आराधना कीजिए । सब अच्छा ही होगा । मैं आपकी रक्षाका प्रबन्ध भी कर देता हूँ । मुनिराजने राजाके आश्वासनके लिए कुछ क्रिया कर दी। राजा, मन्त्री आदि सभी शान्त वातावरण में अहिंसा और अद्वेषका विचार करने लगे । इस अहिंसक चरचामें पता नहीं चला कि दस मुहूर्त कब बीत गए। जब चरचा टूटी तो चौलुक्याधिपतिका ध्यान घटिका यन्त्रपर गया वह हर्षातिरेक से बोला, ग्यारह मुहूर्त हो गए । बुलाओ उस मिथ्याचारीको । ये झूठे ही शापका भय दिखाते हैं । इन लोगोंने न जाने कितने अज्ञानी लोगोंको शापके भयसे त्रस्त कर रखा है । एक मामूली द्वारपाल के आदेश से ये हतप्रभ होते हैं और हमारी अनुवृत्तिके लिए ही शास्त्र, मन्त्र और शाप आदिके हथियारोंका प्रयोग करते हैं । चौलुक्याधिपतिको इस तरह क्रोधाविष्ट देखकर मुनिराज जटिलने कहा- राजन्, क्षमा वीरोंका भूषण है । आप चण्डशर्मा के हृदय चण्डत्वको जीतिए जिससे वे स्वयं मानव समत्व के पुण्यदर्शन कर सकें और अपने प्रभावका उपयोग व्यक्ति और जातिगत स्वार्थसे हटाकर मानवमात्र के उद्धार में लगावें । इतने में द्वारपाल चण्डशर्माको लेकर आ गया । देखते ही चौलुक्याधिपतिका क्रोध फिर भभका । पर मुनिराज जटिलने उन्हें शान्त कर दिया । उनने चण्डशर्मासे आश्वस्त वाणीमें कहा पुरोहितजी, शक्ति और प्रभावका उपयोग मानवमात्र ही नहीं प्राणिमात्र के कल्याण में करना चाहिए । इस जीवनको जगदुपकार में लगाइए। जाति, कुल, रूप आदि देहाश्रित हैं । वर्ण आजीविका और क्रियाके आधीन हैं ये तो व्यवहार हैं । यह तो आपको विदित है कि-व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कठ, द्रोण, पराशर आदि जन्मसे ब्राह्मण नहीं थे पर तपस्या और सदाचार आदिसे उनने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। यह संसार एक रंगशाला है । इसमें अपनी वृत्तिके अनुसार यह जीव नाना वेशोंको धारण करता कम से कम धर्मका क्षेत्र तो ऐसा उन्मुक्त रहना चाहिए जिसमें मानवमात्र क्या प्राणिमात्र शान्तिलाभ कर सके । आप ही बताइए, शूद्र यदि व्रत धारण कर ले और सफाई से रहने लगे, विद्या और शीलकी उपासना करने लगे, मद्य, मांसादि को छोड़ दे तो उसमें और हममें क्या अन्तर रह जाता है ? शरीरका रक्त, मांस, हड्डो आदि में क्या जातिभेद है ? शरीर में तो ब्राह्मणत्व रहता नहीं है । आत्माके उत्कर्ष का कोई बन्धन नहीं है। आज ही राज्यमें अनेक तथोक्त नीच कुलोत्पन्न भी ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित हैं । हमारा तो यह निश्चित सिद्धान्त है किक्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥” - वरांगचरित २५।११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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