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________________ कहानी नियतिवादी सदालपुत्त "बाबा कुछ खानेको दो' भिखारीने दीन स्वरमें कहा । "चलो आगे, मैं क्या कर सकता हूँ। इस समय तेरी यही दशा होनी थी। बिना पूछे भीतर तक चला आया, भाग यहाँसे' झिटकारते हुए सद्दालपुत्त कुम्हारने कहा। बेचारा भिखारी हड़बड़ाकर पास ही रखे कच्चे घड़ोंके ढेरपर भरहराकर गिर पड़ा। कुम्हारके बहुतसे घड़े फूट गए । सद्दालपुत्त क्रोधसे आगबबला हो गया और बोला-मर्ख, यह सब क्या किया ? अन्धा कहों का, सब घड़े चौपट कर दिये। मेरी दो दिन की मेहनतपर इस अनाड़ीने पानी फेर दिया । भिखारीके होश गायब थे, वह पड़नेवाली मारके बचावका उपाय सोचने लगा। इतने में चर्या के लिए श्रमणनायक निग्गंथनाथपुत्त उधरसे निकले और सद्दालपुत्तके द्वारपर पहुंचे। सद्दालपुत्त तो क्रोधसे पागल सा हो रहा था। वह श्रमणनायककी प्रतिपत्ति करना तो भूल गया और बोला-देखिए, इस अन्धेको, इसने मेरा सारा श्रम मिट्टी में मिला दिया, सारे घड़े चौपट कर दिये। सामने एक सन्तको देखकर भिखारी को ढाढससा बँधा और उसकी सहज प्रज्ञा जागी । व्यंग्यसे बोला-मैंने क्या किया ? इन घड़ोंकी इस समय यही दशा होनी थी। भिखारीने सद्दालपुत्तसे हुई सारी बातें सुनाते हुए कहा-'क्या नियति एकके ही लिए है ?' "सदालपुत्त, यह ठीक तो कहता है" श्रमणनायकने कहा। यदि इसका भिखारी होना और उस समय भीख मांगना नियत था और उसी नियतिके बलपर तुमने इसे भगाया भी, तो घड़ोंका फटना भी तुम्हारे हिसाबसे नियत ही था । घड़ोंको इसने कहाँ फोड़ा है ? "यदि यह सावधानीसे जाता तो मेरे घड़े न फूटते"-सद्दालपुत्त क्रोधको शान्त करते हुए बोला । "सद्दाल, क्या तुम यह समझते हो कि तुमने इन घड़ोंको बनाया है ? क्या इनके बनानेमें तुम्हारा कर्तृत्व है ? यदि तुम्हारा कर्तृत्व है तो क्या तुम रेतको भी घड़ा बना सकते हो ?" मृदु स्वरमें श्रमणनायक ने पूछा। "हाँ, भन्ते, यदि इनका बनाने में कुछ भी कर्तृत्व है तो मैं असावधानीके दोषका अपराधी हूँ, वैसे इनकी फटकारके निमित्तसे ही मुझसे यह गलती हुई है।" भिखारी आश्वस्त वाणीमें बोला। ____ सद्दालने कहा-हमारे गुरु गोशालकने तो यही कहा था कि-"सत्त्वोंके क्लेशका कोई हेतु नहीं, प्रत्यय नहीं। बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके सत्त्व क्लेश पाते हैं। सत्त्वोंकी शुद्धिका कोई हेतु नहीं, प्रत्यय नहीं, बिना हेतुकें और बिना प्रत्ययके सत्त्व शुद्ध होते हैं । अपने कुछ नहीं कर सकते, पराए कुछ नहीं कर सकते । कोई पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता। बल नहीं, वीर्य नहीं, पुरुषका कुछ पराक्रम नहीं। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी भत और सभी जीव वशमें नहीं हैं। निर्बल और निर्वीर्य, भाग्य और संयो जातियों में उत्पन्न हो सुख और दुःख भोगते हैं। यह नहीं है-इस शील या व्रत या तप या ब्रह्मचर्यसे मैं अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूंगा। परिपक्व कर्मका भोगकर अन्त करूँगा।" सद्दाल कहता ही गया-सभी द्रव्योंकी सब पर्यायें नियत हैं, वे होंगी ही; उनमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं, कोई यल नहीं, बल नहीं, पराक्रम नहीं, जो जिस समय होना है होगा ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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