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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ३६९ सभामें स्त्रियोंको भी समान स्थान था और शद्रोंको भी। इतना ही नहीं, पशु-पक्षी भी अपना जातिविरोध भूलकर इस अहिंसामूर्तिके दर्शनकर एक जगह बैठते थे। उन्होंने सबको धर्मका उपदेश देते हुए बताया था कि-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र रूपसे यह वर्णव्यवस्था समाजरचना और व्यवस्थाके लिए अपने गुण और कर्मके अनुसार है । वह जन्मना नहीं है, अपने आचरण से है। कोई भी शद्र सदाचार धारणकर ब्राह्मणसे भी ऊँचा हो सकता है और कोई ब्राह्मण भी दुराचारके कारण शूद्र से भी नीचा । वे कहते हैं "कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तियो । वइसो कम्मुणा होइ सुदो हवइ कम्मुणा ॥" अपने कर्म-आचरणसे ही ब्राह्मण होता है, कमसे ही क्षत्रिय होता है, वैश्य भी कर्मसे होता है तथा शूद्र भी कर्मसे ही बनता है । उन्होंने बाह्यक्रियाकांडियों को झकझोरते हुए कहा न वि मुडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण ण तावसो।। कोई मड़ मुड़ा लेने मात्रसे श्रमण नहीं हो सकता और न ओंकारके रटने से ब्राह्मण ही । न जंगलमें बस जानेसे मनि बन सकता है और न मुंजकी रस्सी बाँध लेनेसे तपस्वी ही। तब "समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण मुणी होई तवेण होइ तावसो ॥" समता से श्रमण होता है । जिसके जीवन में शम-शान्ति सम-समत्वकी भावना और श्रम-स्वावलम्बन की प्रतिष्ठा हो वही सच्चा श्रमण है। ब्रह्मचर्य से अर्थात् आत्मधर्ममें विचरण करने से ब्राह्मण होता है न कि बाह्य क्रियाकांड से । ज्ञान से मुनी होता है और इच्छाओंका निरोध करनेसे तपस्वी होता है। उन्होंने सच्चे ब्राह्मणकी परिभाषा करते हुए कहा "जहा पोम्म जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि तं वयं बूम माहणं ।।" जिस प्रकार कमल जलमें उत्पन्न होकर भी उससे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार संसारमें रहकर जो कामभोगोंमें लिप्त नहीं होता वह सच्चा ब्राह्मण है। और इसीलिए महावीरके धर्मसे अर्जनमाली और हरिकेशी चांडाल जैसे पतितोंका भी उद्धार हआ था और उन्हें धर्मक्षेत्र में वही दरजा प्राप्त था जो गौतम जैसे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण को। जब उनके परम प्रिय शिष्य गौतमने तीर्थंकर महावीरसे गिड़गिड़ाकर कहा-प्रभु, मेरा उद्धार करो, तुम ही मुझे तार सकते हो तो उन्होंने कहा था-गौतम, तुम स्वयं ही अपना उद्धार कर सकते हो, कोई किसीका उद्धार करनेवाला नहीं है। जब तक तुम्हारे जीवनमें थोड़ा भी परावलम्बन होगा तब तक तुम पराधीन रहोगे और बन्धनमें पड़े रहोगे । वे बोले __ "पुरिसा तुममेव तुम मित्तं किं बाहिरा मित्तमिच्छसि ।" भव्य पुरुषो, तुम स्वयं अपने मित्र हो, बाहिर मित्र कहाँ हूँढते हो ? ४-४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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