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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३५७ तरह वह आत्महितके लिए वास्तविक कार्यकारी नहीं है । यहाँ सम्यग्दृष्टिके चिन्तन-भावनामें स्वावलम्बनका उपदेश है। उससे पदार्थव्यवस्था नहीं की जा सकती। सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्व नियतिवादी या तथोक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे बडा तर्क है कि सर्वज्ञ है या नहीं? यदि सर्वज्ञ है तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा। फलतः वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण जो होना है उसे ठीकरूपमें जानता है । इस तरह प्रत्येक परमाणु की प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है । सर्वज्ञ माननेका दूसरा अर्थ है नियतिवादी होना । पर, आज जो सर्वज्ञ नहीं मानते उनके सामने हम नियतिचक्रको कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? जिस अध्यात्मवादके मलमें हम नियतिवादको पनपाते हैं उस अध्यात्मदृष्टिसे सर्वज्ञता व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें ही उसका पर्यवसान होता है जैसा कि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसार ( गा. १५८ ) में लिखा है "जाणदि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । केवलणाणो जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।" अर्थात् केवली भगवान व्यवहारनयसे सब पदार्थोंको जानते, देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्माको जानता, देखता है। अध्यात्मशास्त्रमें निश्चयनयकी भूतार्थता और परमार्थता व्यवहारनयकी अभूतार्थतापर विचार करनेसे तो अध्यात्मशास्त्रमें पूर्णज्ञानका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञानमें ही होता है। अतः सर्वज्ञत्वकी दलीलका अध्यात्मचिन्तनमलक पदार्थव्यवस्थामें उपयोग करना उचित नहीं है । नियतिवादमें एक ही प्रश्न एक ही उत्तर नियतिवादमें एक ही उत्तर है 'ऐसा ही होना था, जो होना होगा सो होगा ही' इसमें न कोई तर्क है, न कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । वस्तुव्यवस्थामें इस प्रकारके मुत विचारोंका क्या उपयोग ? जगत्में विज्ञानसम्मत कार्यकारणभाव है। जैसी उपादानयोग्यता और जो निमित्त होंगे तदनसार परिणमन होता है । पुरुषार्थ निमित्त और अनुकूल सामग्रीके जुटानेमें है । एक अग्नि है पुरुषार्थी यदि उसमें चन्दनका चूरा डाल देता है तो सुगन्धित धुआं निकलेगा, यदि बाल आदि डालता है तो दुर्गन्धित धुआँ उत्पन्न होगा। यह कहना कि चूराको उसमें पड़ना था, पुरुषको उसमें डालना था, अग्निको उसे ग्रहण करना ही था। इसमें यदि कोई हेर-फेर करता है तो नियतिवादीका वही उत्तर कि 'ऐसा ही होना था। मानो जगतके परिणमनोंको 'ऐसा ही होना था' इस नियति भगवतीने अपनी गोदमें ले रखा हो। अध्यात्मकी अकर्तृत्व भावनाका उपयोग तब अध्यात्मशास्त्रकी अकर्तत्वभावनाका क्या अर्थ है ? अध्यात्ममें समस्त वर्णन उपादानयोग्यताके आधारसे किया गया है। निमित्त मिलानेपर यदि उपादानयोग्यता विकसित नहीं होती, कार्य नहीं हो सकेगा । एक ही निमित्त-अध्यापकसे एक छात्र प्रथम श्रेणीका विकास करता है जबकि दूसरा द्वितीय श्रेणीका और तीसरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है । अतः अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानयोग्यतासे ही होता है। हाँ, निमित्त उस योग्यताको विकासोन्मुख बनाते हैं, तब अध्यात्मशास्त्रका कहना है कि निमित्तको यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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