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________________ ७ - ' स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्यादस्ति च नास्ति च ' अ वक्तव्य है । ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३४७ दोनोंको मिलाने से मालूम होगा कि जैनोंने संजय के पहिलेवाले तीन वाक्यों ( प्रश्न और उत्तर दोनों ) को अलग करके अपने स्याद्वादको छह भंगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'सद्' भी अवक्तव्य है यह सातवाँ भंग तैयारकर अपनी सप्तभंगी पूरी की। इस प्रकार एक भी सिद्धान्त ( - स्याद् ) की स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको संजय के अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया और उसके चतुभंगी न्यायको सप्तभंगी में परिणत कर दिया ।” राहुलजीने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्याद्वादको न समझकर केवल शब्दसाम्यसे एक नये मतकी सृष्टि की है । यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोरसे 'क्या तुम अमुक जगह गये थे ?' यह पूछने पर वह कहे कि "मैं नहीं कह सकता कि गया था'' और जज अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि चोर अमुक जगह गया था । तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोर के बयान से निकला है । संजयवेलट्ठिपुत्तके दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने ( पृ० ४९१ ) इन शब्दों में किया है - "यदि आप पूछें— 'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बताऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है परलोक नहीं नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी है । परलोक न है और न नहीं है ।" संजय के परलोक, देवता, • कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध के ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके हैं । वह स्पष्ट कहता है कि - "यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ ।” संजयको परलोक-मुक्ति आदिके स्वरूपका कुछ भी निश्चय नहीं था । इसलिए उसका दर्शन वकौल राहुलजीके मानवकी सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओं की पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था । बुद्ध और संजय - बुद्धने "लोक नित्य हैं, अनित्य हैं, नित्य-अनित्य हैं, न नित्य न अनित्य हैं, लोक अन्तवान् है, नहीं हैं, हैं-नहीं है, न है न नहीं है, निर्वाणके बाद तथागत होते हैं, नहीं होते, होते - नहीं होते, न होते न नहीं होते, जीव शरीरसे भिन्न हैं, जीव शरीरसे भिन्न नहीं है ।" ( माध्यमिक वृत्ति, पृ० ४४६ । इन चौदह वस्तुओंको अव्याकृत कहा है । मज्झिमनिकाय ( २।३३ ) इनकी संख्या दश है । इसमें आदिके दो प्रश्नों में तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिनाया गया है। इनके अव्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शांति परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है । तात्पर्य यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिए आवश्यक नहीं था । दूसरे शब्दों में बुद्ध भी संजयकी तरह इनके बारेमें कुछ कहकर मानवको सहज बुद्धिको भ्रम नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओंको पुष्ट ही करना चाहते थे । हाँ, संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ-साफ शब्दों में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, तब बुद्ध अ जानने, न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिए अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी तार्किकका यह प्रश्न अभीतक असमाहित ही रह जाता है कि इस अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या अन्तर है ? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह खरी-खरी बात कह देता है और बुद्ध बड़े आदमियोंकी शालीनताका निर्वाह करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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