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________________ ३४० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं निजी सम्पत्ति हैं। इनमेंसे हमारा स्वल्प ज्ञामलव एक-एक अंशको विषय करके क्षुद्र मतवादोंकी सृष्टि कर रहा है। आत्माको नित्य सिद्ध करनेवालोंका पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्माको अनित्य सिद्ध करनेवालोंकी उखाड़पछाड़ में लगा रहा है तो अनित्यवादियोंका गुट नित्यवादियोंको भला-बुरा कह रहा है । महावीरको इन मत्वादियोंकी बुद्धि और वृत्तिपर तरस आता था । वे बुद्धकी तरह आत्मनित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अव्याकृत कहकर बौद्धिक तमकी सृष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशमें लाकर उन्हें मानससमताकी समभूमिपर ला दिया । उनने बताया कि वस्तुको तुम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखे जानेकी क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालम होता है उसका ईमानदारीसे विचार करो वह भी वस्तुमें विद्यमान है । चित्तसे पक्षपातकी दुरभिसन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो वह वहीं लहरा रहा है । हाँ, वस्तुकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़में चेतनत्व खोजा जाय या चेतनमें जड़त्व, तो नहीं मिल सकता। क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने निजी धर्म निश्चित है । मैं प्रत्येक वस्तुको अनन्तधर्मात्मक कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धर्मों में चेतनके संभव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत संभव धर्म अचेतनमें । चेतनके गुणधर्म अचेतनमें नहीं पाए जा सकते और न अचेलनके चेतनमें । हाँ, कुछ ऐसे सामान्य धर्म भी है जो चेतन और अचेतन दोनोंमें साधारण रूपसे पाए जाते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तुमें बहुत गुंजाइश है । वह इतनी विराट् है जो हमारे, तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है । एक क्षुद्र-दृष्टि के आग्रहपूर्वक दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है। हरिभद्रसूरिने लिखा है कि "आग्रहो वत निनोति युक्ति तत्रयत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।।" अर्थात् आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषणके लिए युक्तियाँ ढूढ़ता है, युक्तियोंको अपने मतको ओर ले जाता है पर पक्षरहित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूप को स्वीकार करने में अपनी मतिकी सफलता मानता है। अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी ओर अपने मतको लगाओ न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु और युक्तिकी खींचातानी करके उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रयास करो, और न कल्पनाकी उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तुकी सीमाको ही लाँघ जाय । तात्पर्य यह कि मानस समताके लिए यह वस्तुस्थितिमलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है । इसके द्वारा इस नरतनधारीको ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानी में है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है, और वह किस दुरभिमानसे हिंसक मतवादका सर्जन करके मानवसमाजका अहित कर रहा है। इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त दर्शनसे विचारोंमें या दृष्टिकोणोंमें कामचलाऊ समन्वय या ढोला-ढीला समझौता नहीं होता किन्तु वस्तुस्वरूपके आधारसे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वयदृष्टि प्राप्त होती है। डॉ० सर राधाकृष्णन इंडियन फिलासफी ( जिल्द १, पृ० ३०५-६ ) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते है कि- "इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वादसे हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते। दूसरे शब्दोंमें-स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्णसत्य मान लेनेको प्रेरणा करता है, परन्तु केवल निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एकसाथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता। आदि।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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