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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ३०९ उस प्रकारका तादात्म्य दो द्रव्योंमें नहीं हो सकता। अतः अनेक विभिन्न सत्ताके परमाणु ओंके बन्ध-कालमें जो स्कन्ध-अवस्था होती है, वह उन्हीं परमाणओंके सदश परिणमनका योग है, उनमें कोई एक नया द्रव्य नहीं आता, अपितु विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त वे परमाणु ही विभिन्न स्कन्धोंके रूप में व्यवहृत होते हैं । यह विशिष्ट अवस्था उनकी कथञ्चित् एकत्व-परिणतिरूप है। कार्योत्पत्ति विचार सांख्यका सत्कार्यवाद कार्योत्पत्तिके सम्बन्धमें मुख्यतया तीन वाद हैं। पहला सत्कार्यवाद, दूसरा असत्कार्यवाद और तीसरा सत्-असत्कार्यवाद । सांख्य सत्कार्यवादी हैं । उनका यह आशय है कि प्रत्येक कारणमें उससे उत्पन्न होनेवाले कार्योंकी सत्ता है क्योंकि सर्वथा असत् कार्यकी खरविषाणकी तरह उत्पत्ति नहीं हो सकती। गेहूँके अंकुरके लिए गेहूँके बीजको ही ग्रहण किया जाता है, यवादिके बीजको नहीं। अतः ज्ञात होता है कि उपादानमें कार्यका सद्भाव है । जगत्में सब कारणोंसे सब कार्य पैदा नहीं होते, किन्तु प्रतिनियत कारणोंसे प्रतिनियत कार्य होते हैं । इसका सीधा अर्थ है कि जिन कारणोंमें जिन कार्योंका सद्भाव है, वे ही उनसे पैदा होते हैं, अन्य नहीं । इसी तरह समर्थ भी कारण शक्य हो कार्यको पैदा करता है, अशक्यको नहीं । यह शक्यता कारणमें कार्यके सदभावके सिवाय और क्या हो सकती है ? और यदि कारणमें कार्यका तादात्म्य स्वीकार न किया जाय तो संसारमें कोई किसीका कारण नहीं हो सकता । कार्यकारणभाव स्वयं ही कारणमें किसी रूपसे कार्यका सद्भाव सिद्ध कर देता है। सभी कार्य प्रलयकालमें किसी एक कारणमें लीन हो जाते हैं। वे जिसमें लीन होते हैं, उसमें उनका सद्भाव किसी रूपसे रहा आता है। ये कारणोंमें कार्यकी सत्ता शक्तिरूपसे मानते हैं, अभिव्यक्तिरूपसे नहीं। इनका कारणतत्त्व एक प्रधान-प्रकृति है, उसीसे संसारके समस्त कार्यभेद उत्पन्न हो जाते हैं। नैयायिकका असत्कार्यवाद नैयायिकादि असत्कार्यवादी हैं। इनका यह मतलब है कि जो स्कन्ध परमाणुओंके संयोगसे उत्पन्न होता है वह एक नया ही अवयवी द्रव्य है। उन परमाणुओंके संयोगके बिखर जानेपर वह नष्ट हो जाता है। उत्पत्तिके पहले उस अवयवी द्रव्यकी कोई सत्ता नहीं थी। यदि कार्यकी सत्ता कारणमें स्वीकृत हो तो कार्यको अपने आकार-प्रकारमें उसी समय मिलना चाहिए था, पर ऐसा देखा नहीं जाता । अवयव द्रव्य और अवयवी द्रव्य यद्यपि भिन्न द्रव्य है, किन्तु उनका क्षेत्र पृथक् नहीं है, वे अयुतसिद्ध है । कहीं भी अवयवीकी उपलब्धि यदि होती है, तो वह केवल अवयवोंमें ही। अवयवोंसे भिन्न अर्थात् अवयवोंसे पृथक् अवयवीको जुदा निकालकर नहीं दिखाया जा सकता। बौद्धोंका असत्कार्यवाद बौद्ध प्रतिक्षण नया उत्पाद मानते हैं। उनकी दष्टिमें पूर्व और उत्तरके साथ वर्तमानका कोई सम्बन्ध नहीं । जिस कालमें जहाँ जो है, वह वहीं और उसी कालमें नष्ट हो जाता है । सदृशता ही कार्य-कारण भाव आदि व्यवहारोंकी नियामिका है । वस्तुतः दो क्षणोंका परस्पर कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। .... १. "असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । कारणकार्यविभागादविभागात वैश्वरूप्यस्य।" -सांख्यका० ९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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