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________________ १२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ विनोदप्रिय महेन्द्रकुमार जी • पं० नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर श्री महेन्द्रकुमारजी मेरे सहपाठी थे । यह सन् १९२७ से १९२९ तक तीन वर्ष शास्त्री कक्षा में श्री महेन्द्र सिंहजी ( प्रसिद्ध आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी ) श्री वर्धमानजी शोलापुर, दक्षिणके जिनराजजी एवं नागराजजी आदि जैन बोर्डिंगमें रहकर वहीं सर हुकमचंद संस्कृत महाविद्यालय जँवरीबाग, इन्दौर में श्री न्यायालंकार पं० बंशीधरजी, श्री पं० जीवंधरजी न्यायतीर्थं एवं श्री व्याकरणाचार्य पं० शंभुनाथजी त्रिपाठी के पास क्रमशः जैनसिद्धांत, जैन न्याय और जैन साहित्यका अध्ययन करते थे । महेन्द्रकुमारजी अत्यंत विनोदप्रिय थे । और परस्पर हासपरिहाससे तंग आकर जब कोई सहपाठी गुरुजी के पास शिकायत ले जाता तो गुरुजी का उत्तर था कि स्वकार्यं साधयतः नृत्यतोऽपिदोषाभावात् । हम क्या करें महेन्द्रकुमार मेधावी और व्युत्पन्न पात्र है । उसका हम कोई अपराध नहीं मानते - 'जिन्दगी जिन्दादिलीका नाम है' । यह उक्ति उसपर घटती है । हमलोग प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और अष्टसहस्री आदि उच्चतम ग्रन्थोंका पंक्तिशः अर्थ लगाते थे । 'त्रिलोकसार' अलौकिक गणितका ग्रन्थ भी हमने साथ ही पढ़ा है । सर्व ग्रंथों में महेन्द्रकुमारजी का विशेष प्रवेश था । सन् १९२८ में वैरिस्टर चंपतरायजीने विदेशसे आकर एक माह तक हमें जैनधर्मके नोट्स लिखाये थे और परीक्षा भी ली थी, उसमें महेन्द्रकुमारजी प्रथम आए थे । हम व्यायामशाला, जिनेन्द्रपूजा और हाकी, फुटबाल आदिमें साथ ही रहते थे । श्री मंत सरसेठ हुकमचंदजी वर्ष में दो बार व्यायामशाला में आकर हमारी कुश्ती देखते थे और हमें पारितोषिक देते थे । प्रतिदिन वायुसेवन या अन्य समय दो घण्टा संस्कृत भाषामें हो हम वार्तालाप करते थे । महेन्द्रकुमारजी सदृश महान् विद्वान्को भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्का अध्यक्ष बनाकर परिषद्को गौरवान्वित होना चाहिए था । परन्तु परिषद् कार्यकर्ताओंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। मुझे दुःख है कि बहुत कम उम्र में उनका देहावसान हुआ । उसका कारण यह है कि वे अहर्निश बिना विश्राम साहित्य सेवामें संलग्न रहते थे । वे रोगों के इलाजकी चिन्ता नहीं करते थे । अध्ययनके बाद जब वे खुरईमें थे, मैं उनसे मिलने गया था। दूसरी बार भी मैं मेरे मित्र पंचरत्नके विवाह में उनके साथ रहा था। पत्रमें मुझे, वे भवदीयके स्थान में अनुकारक लिखा करते थे । वाराणसी के विद्वानों में बड़ा प्रभाव था । उनके प्रति मैं अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ । सन्देश • D. VEERENDRA HEGGADE. Dharmasthala I am happy to note that you will bring out a commemorative Volume on Dr. Mahendra Kumar Jain. Hope it will highlight his activities and achievements. I wish your venture all success. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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