SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३०५ द्रव्य कहलाता और उसीकी सत्ता द्रव्यरूपमें गिनी जाती है। अनेक द्रव्योंके समान या असमान परिणमनोंकी औसतसे जो विभिन्न व्यवहार होते हैं, वे स्वतन्त्र द्रव्यको संज्ञा नहीं पा सकते । जिन परमाणुओंसे घट बनता है उन परमाणुओंमें घट नामके निरंश अवयवीको स्वीकार करने में अनेकों दूषण आते हैं। यथा-निरंश अवयवी अपने अवयवोंमें एकदेशसे रहता है, या सर्वात्मना ? यदि एकदेशसे रहता है; तो जितने अवयव हैं, उतने हो देश अवयवीके मानना होंगे । यदि सर्वात्मना प्रत्येक अवयवमें रहता है; तो जितने अवयव है उतने हो अवयवी हो जायेगे। यदि अवयवी निरंश है; तो वस्त्रादिके एक हिस्सेको ढंकनेपर सम्पूर्ण वस्त्र ढंका जाना चाहिये और एक अवयव में क्रिया होने पर पूरे अवयवोंमें क्रिया होनी चाहिए, क्योंकि अवयवी निरंश है । यदि अवयवी अतिरिक्त है; तो चार छटाँक सूतसे तैयार हुए वस्त्रका वजन बढ़ जाना चाहिये, पर ऐसा देखा नहीं जाता । वस्त्रके एक अंशके फट जानेपर फिर उतने परमाणुओंसे नये अवयवीकी उत्पत्ति मानने में कल्पनागौरव और प्रतीतिबाधा है, क्योंकि जब प्रतिसमय कपड़का उपचय और अपचय होता है तब प्रतिक्षण नये अवयवीकी उत्पत्ति मानना पड़ेगी। __ वैशेषिकका आठ, नव, दस आदि क्षणोंमें परमाणुको क्रिया, संयोग आदि क्रमसे अवयवीकी उत्पत्ति और विनाशका वर्णन एक प्रक्रियामात्र है। वस्तुतः जैसे-जैसे कारणकलाप मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे उन परमाणुओंके संयोग और वियोगसे उस-उस प्रकारके आकार और प्रकार बनते ओर बिगड़ते रहते हैं। परमाणुओंसे लेकर घट तक अनेक स्वतंत्र अवयवियोंकी उत्पत्ति और विनाशकी प्रक्रियासे तो यह निष्कर्ष निकलता है कि जो द्रब्य पहले नहीं हैं, वे उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, जबकि किसी नये द्रव्यका उत्पाद और उसका सदाके लिए विनाश वस्तुसिद्धान्तके प्रतिकूल है । यह तो संभव है और प्रतीतिसिद्ध है कि उन-उन परमाणुओंकी विभिन्न अवस्थाओंमें पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि व्यवहार होते हुए पूर्ण कलश-अवस्थामें घटव्यवहार हो । इसमें किसी नये द्रव्यके उत्पाद बात नहीं है, और न वजन बढ़नेकी बात है। यह ठीक है कि प्रत्येक परमाणु जलधारण नहीं कर सकता और घटमें जल भरा जा सकता है, पर इतने मात्रासे उसे पृथक द्रव्य नहीं माना जा सकता । ये तो परमाणुओंके विशिष्ट संगठनके कार्य हैं; जो उस प्रकारके संगठन होनेपर स्वतः होते हैं । एक परमाणु आँखसे नहीं दिखाई देता, पर अमुक परमाणुका समुदाय जब विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, तो वह दिखाई देने लगता है । स्निग्धता और रूक्षताके कारण परमाणुओंके अनेक प्रकारके सम्बन्ध होते रहते हैं, जो अपनी दृढ़ता और शिथिलताके अनुसार अधिक टिकाऊ या कम टिकाऊ होते हैं । स्कन्ध-अवस्थामें चूंकि परमाणुओंका स्वतन्त्र द्रव्यत्व नष्ट नहीं होता, अतः उन-उन हिस्सोंके परमाणुओंमें पृथक् रूप और रसादिका परिणमन भी होता जाता है। यही कारण है कि एक कपड़ा किसी हिस्से में अधिक मैला, किसीमें कम मला और किसीमें उजला बना रहता है। ..यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि जो परमाणु किसी स्थल घट आदि कार्य रूपसे परिणत हए हैं, वे अपनी परमाणु-अवस्थाको छोड़कर स्कन्ध-अवस्थाको प्राप्त हुए है। यह स्कन्ध-अवस्था किसी नये द्रव्यकी नहीं, किन्तु उन सभी परमाणुओंकी अवस्थाओंका योग है। यदि परमाणओंको सर्वथा पृथक् और सदा परमाणुरूप ही स्वीकार किया जाता है, तो जिस प्रकार एक परमाणु आँखोंसे नहीं दिखाई देता उसी तरह सैकड़ों परमाणुओंके अति-समीप रखे रहनेपर भी, वे इन्द्रियोंके गोचर नहीं हो सकेंगे । अमुक स्कन्ध-अवस्थामें आनेपर उन्हें अपनी अदृश्यताको त्यागकर दृश्यता स्वीकार करनी ही चाहिए। किसी भी वस्तुको मजबूती या कमजोरी उसके घटक अवयवोंके दृढ़ और शिथिल बंधके ऊपर निर्भर करती है। वे ही परमाणु लोहेके स्कन्धकी अवस्थाको प्राप्तकर कठोर और चिरस्थायी बनते हैं, जबकि रूई अवस्था मुदु और अचिर ४-३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy