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________________ ४/विशिष्ट निबन्ध : २९७ एक ही पुद्गल मौलिक है आधुनिक विज्ञानने पहले ९२ मौलिक तत्त्व ( Elements ) खोजे थे। उन्होंने इनके वजन और शक्तिके अंश निश्चित किये थे। मौलिक तत्त्वका अर्थ होता है-'एक तत्त्वका दूसरे रूप न होना ।' परन्तु अब एक एटम ( Atom ) ही मूल तत्त्व बच गया है। यही एटम अपने में चारों ओर गतिशील इलेक्ट्रोन और प्रोटोनकी संख्याके भेदसे ऑक्सीजन, हॉइड्रोजन, चाँदी, सोना, लोहा, ताँबा, यूरेनियम, रेडियम आदि अवस्थाओंको धारण कर लेता है। ऑक्सीजनके अमक इलेक्ट्रोन या प्रोटोनको तोड़ने या मिलानेपर वही हाइड्रोजन बन जाता है । इस तरह ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दो मौलिक न होकर एक तत्त्वकी अवस्थाविशेष ही सिद्ध होते हैं । मूलतत्त्व केवल अणु ( Atom ) है । पृथिवी आदि स्वतन्त्र द्रव्य नहीं नैयायिक-वैशेषिक पृथ्वीके परमाणुओंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि चारों गुण, जलके परमाणुओंमें रूप, रस और स्पर्श ये तीन गुण; अग्निके परमाणुओंमें रूप और स्पर्श ये दो गुण और वायुमें केवल स्पर्श, इस तरह गुणभेद मानकर चारोंको स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । किन्तु जब प्रत्यक्षसे सीपमें पड़ा हआ जल, पार्थिव मोती बन जाता है, पार्थिव लकड़ी अग्नि बन जाती है, अग्नि स्म बन जाती है, पार्थिव हिम पिघलकर जल हो जाता है और ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दोनों वायु मिलकर जल बन जाती हैं, तब इनमें परस्पर गुणभेदकृत जातिभेद मानकर पृथक् द्रव्यत्व कैसे सिद्ध हो सकता है ? जैनदर्शनने पहलेसे ही समस्त पुद्गलपरमाणुओंका परस्पर परिणमन देखकर एक ही पुद्गल द्रव्य स्वीकार किया है । यह तो हो सकता है कि अवस्थाविशेषमें कोई गुण प्रकट हों और कोई अप्रकट । अग्निमें रस अप्रकट रह सकता है, वायुमें रूप और जलमें गन्ध, किन्तु उक्त द्रव्योंमें उन गुणोंका अभाव नहीं माना जा सकता । यह एक सामान्य नियम है कि 'जहाँ स्पर्श होगा वहाँ रूप, रस और गन्ध अवश्य ही होंगे।' इसी तरह जिन दो पदार्थोंका एक-दूसरेके रूपसे परिणमन हो जाता है वे दोनों पृथक-जातीय द्रव्य नहीं हो सकते । इसीलिए आजके विज्ञानको अपने प्रयोगोंसे उसी एकजातिक अणुवादपर आना पड़ा है। प्रकाश और गर्मी भी शक्तियाँ नहीं यद्यपि विज्ञान प्रकाश, गर्मी और शब्दको अभी केवल ( Energy ) शक्ति मानता है। पर, बह शक्ति निराधार न होकर किसी-न-किसी ठोस आधारमें रहनेवाली ही सिद्ध होगी; क्योंकि शक्ति या गुण निराश्रय नहीं रह सकते । उन्हें किसी-न-किसी मौलिक द्रव्यके आश्रयमें रहना हो होगा । ये शक्तियाँ जिन माध्यमोंसे गति करती हैं, उन माध्यमोंको स्वयं उस रूपसे परिणत कराती हुई ही जाती हैं। अतः यह प्रश्न मनमें उठता है कि जिसे हम शक्तिकी गति कहते हैं वह आकाशमें निरन्तर प्रचित परमाणुओंमें अविराम गतिसे उत्पन्न होनेवाली शक्तिपरंपरा ही तो नहीं है ? हम पहले बता आये हैं कि शब्द, गर्मी और प्रकाश किसी निश्चित दिशाको गति भी कर सकते हैं और समीपके वातावरणको शब्दायमान, प्रकाशमान और गरम भी कर देते हैं । यों तो जब प्रत्येक परमाणु गतिशील है और उत्पाद-व्ययस्वभावके कारण प्रतिक्षण नतन पर्यायोंको धारण कर रहा है, तब शब्द, प्रकाश और गर्मीको इन्हीं परमाणुओंकी पर्याय मानने में ही वस्तुस्वरूपका संरक्षण रह पाता है। जैन ग्रन्थों में पुद्गल द्रव्योंकी जिन-कर्मवर्गणा, नोकर्मवर्गणा, आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, आदि रूपसे-२३ प्रकारको वर्गणाओंका वर्णन मिलता है, वे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। एक ही पुद्गलजातीय १. देखो, गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५९३-९४ । ४-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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