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________________ २९२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ जाते हैं। एक संसारी-जो अपने संस्कारोंके कारण नाना योनियोंमें शरोरोंको धारणकर जन्म-मरण रूपसे संसरण कर रहे हैं । (२) दूसरे मुक्त-जो समस्त कर्मसंस्कारोंसे छूटकर अपने शुद्ध चैतन्यमें सदा परिवर्तमान हैं । जब जीव मुक्त होता है, तब वह दीपशिखाकी तरह अपने ऊर्ध्व-गमन स्वभावके कारण शरीरके बन्धनोंको तोड़कर लोकाग्रमें जा पहुँचता है, और वहीं अनन्तकाल तक शुद्धचैतन्यस्वरूपमें लीन रहता है। उसके आत्मप्रदेशोंका आकार अन्तिम शरीरके आकारके समान बना रहता है; क्योंकि आगे उसके विस्तारका कारण नामकर्म नहीं रहता। जीवों के प्रदेशोंका मंकोच और विस्तार दोनों ही कर्मनिमित्तसे होते हैं । निमित्तके हट जानेपर जो अन्तिम स्थिति है, वही रह जाती है। यद्यपि जीवका स्वभाव ऊपरको गति करनेका है, किन्तु गति करनेमें सहायक धर्मद्रव्य चूंकि लोकके अन्तिम भाग तक हो है, अतः मुक्त जीवकी गति लोकाग्र तक हो होतो है, आगे नहीं। इसीलिए सिद्धोंको 'लोकाग्रनिवासी' कहते है। सिद्धात्माएँ चूंकि शुद्ध हो गई है, अतः उनपर किसी दूसरे द्रव्यका कोई प्रभाव नहीं पड़ता; और न वे परस्पर ही प्रभावित होती हैं। जिनका संसारचक्र एक बार रुक गया, फिर उन्हें संसारमें रुलनेका कोई कारण शेप नहीं रहता । इगलिए इन्हें अनन्तसिद्ध कहते हैं। जीवकी 'संसार-यात्रा कबसे शुरू हई, यह नहीं बताया जा सकता; पर 'कब समाप्त होगी' यह निश्चित बताया जा सकता है। असंख्य जीवोंने अपनी संसारयात्रा समाप्त करके मुक्ति पाई भी है। इन सिद्धोंके सभी गुणोंका परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है। ये कृतकृत्य हैं, निरंजन हैं और केवल अपने शुद्धचित्परिणमनके स्वामी हैं। इनकी यह सिद्धावस्था नित्य इस अर्थ में है कि वह स्वाभाविक परिणमन करते रहनेपर भी कभी विकृत या नष्ट नहीं होती। यह प्रश्न प्रायः उठता है कि 'यदि सिद्ध सदा एकसे रहते हैं, तो उनमें परिणमन माननेकी क्या आवश्यकता है ?' परन्तु इसका उनर अत्यन्त सहज है। और वह यह है कि जब द्रव्यकी मल स्थिति ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है, तब किसी भी द्रव्यको चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, इस मल स्वभावका अपवाद कैसे माना जा सकता है ? उसे तो अपने मूल स्वभावके अनुसार परिणमन करना ही होगा। चूंकि उनके विभाव परिणमनका कोई हेतु नहीं है, अतः उनका सदा स्वभावरूपसे ही परिणमन होता रहता है। कोई भी द्रव्य कभी भी परिणमनचक्रसे बाहर नहीं जा सकता । 'तब परिणमनका क्या प्रयोजन ?' इसका सीधा उत्तर है-स्वभाव' । चूंकि प्रत्येक द्रव्यका यह निज स्वभाव है, अतः उसे अनन्तकाल तक अपने स्वभावमें रहना ही होगा । द्रव्य अपने अगुरुलघुगुणके कारण न कम होता है और न बढ़ता है। वह परिणमनकी तीक्ष्ण धारपर चढ़ा रहनेपर भी अपना द्रव्यत्व नष्ट नहीं होने देता। यही अनादि अनन्त अविच्छिन्नता द्रव्यत्व है, और यही उसकी अपनी मौलिक विशेषता है । अगुरुलघुगुणके कारण उसके न तो प्रदेशों में हो न्यूनाधिकता होती है, और न गुणोंमें ही। उसके आकार और प्रकार भी सन्तुलित रहते है। सिद्ध का स्वरूप निम्नलिखित गाथामें बहुत स्पष्ट रूपसे कहा गया है "णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्ग-ठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता ॥" -नियमसार गा० ७२ अर्थात्-सिद्ध ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे रहित हैं । सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाध इन आठ गुणोंसे युक्त हैं । अपने पूर्व अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून आकारवाले हैं। नित्य है और उत्पाद-व्ययसे युक्त है, तथा लोकके अग्रभागमें स्थित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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