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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २७९ पदपर प्रतिष्ठित हो सकती है। किन्तु मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है । शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए आहार करना, मलमूत्रका विसर्जन करना, चलना-फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। अतः जितने अंशोंमें मन, वचन और कायकी क्रियाओंका निरोध है, उतने अंशको गुप्ति कहते हैं । गुप्ति अर्थात् रक्षा । मन वचन और कायकी अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा करना । यह गुप्ति ही संवरणका साक्षात् कारण है । गुप्तिके अतिरिक्त समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीहजय और चारित्र आदिसे भी संवर होता है। समिति आदिमें जितना निवृत्तिका अंश है उतना संवरका कारण होता है और प्रवृत्तिका अंश शुभ बन्धका हेतु होता है । समिति समिति अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति, सावधानीसे कार्य करना । समिति पाँच प्रकार की है। ईर्ष्या समिति - चार हाथ आगे देखकर चलना । भाषा समिति - हित-मित प्रिय वचन बोलना । एषणा समिति - विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना । आदान-निक्षेपण समिति — देख शोधकर किसी वस्तुका रखना, उठाना । उत्सर्ग समिति — देख - शोधकर निर्जन्तु स्थानपर मलमूत्रादिका विसर्जन करना । धर्म आत्मस्वरूपकी ओर ले जानेवाले और समाजको संधारण करनेनाले विचार और प्रवृत्तियाँ धर्म हैं । धर्म दश हैं । उत्तम क्षमा — क्रोधका त्याग करना । क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर वस्तुस्वरूपका विचारकर विवेकजलसे उसे शान्त करना। जो क्षमा कायरताके कारण हो और आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं है, वह क्षमाभास है, दूषण है । उत्तम मार्दव - मृदुता, कोमलता, विनयभाव, मानका त्याग । ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर आदिकी किंचित् विशिष्टता के कारण आत्मस्वरूपको न भूलना, इनका मद न चढ़ने देना । अहंकार दोष है और स्वाभिमान गुण । अहंकारमें दूसरेका तिरस्कार छिपा है और स्वाभिमान में दूसरेके मानका सम्मान है। उत्तम आर्जव - ऋजुता, सरलता, मायाचारका त्याग । मन, वचन और कायकी कुटिलताको छोड़ना । जो मनमें हो, वही वचन में और तदनुसार ही कायकी चेष्टा हो, जीवन-व्यवहार में एकरूपता हो । सरलता गुण है और भोंदूपन दोष उत्तम शौच - शुचिता, पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभन में नहीं फँसना । लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना । शौच गुण है, परन्तु बाह्य सोला और चौकापंथ आदिके कारण छू-छू करके दूसरोंसे घृणा करना दोष है । उत्तम सत्य -- प्रामाणिकता, विश्वास-परिपालन, तथ्य और स्पष्ट भाषण । सच बोलना धर्म है, परन्तु परनिन्दाके अभिप्रायसे दूसरोंके दोषोंका ढिढोरा पीटना दोष है । परको बाधा पहुँचानेवाला सत्य भी कभी दोष हो सकता है । उत्तम संयम - इन्द्रिय-विजय और प्राणि-रक्षा । पाँचों इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्तिपर अंकुश रखना, उनकी निरर्गल प्रवृत्तिको रोकना, इन्द्रियोंको वश में करना । प्राणियोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए, खान-पान और जीवन-व्यवहारको अहिंसाको भूमिकापर चलाना । संयम गुण है, पर भाव-शून्य बाह्य क्रियाकाण्डका अत्यधिक आग्रह दोष है। उत्तम तप - इच्छानिरोध । मनकी आशा और तृष्णाओं को रोककर प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य ( सेवा ), स्वाध्याय और व्युत्सर्ग ( परिग्रहत्याग ) की ओर चित्तवृत्तिका मोड़ना । ध्यान करना भी तप है । उपवास, एकाशन, रससत्य, एकान्तवास, मौन, कायक्लेश शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्य तप हैं । इच्छानिवृत्ति करके अकिंचन बननारूप तप गुण है और मात्र कायक्लेश करना, पंचाग्नि तपना, हठयोगकी कठिन क्रियाएँ आदि बालतप हैं । उत्तम त्याग — दान देना, त्यागकी भूमिकापर आना । शक्त्यनुसार भूखोंको भोजन, रोगीको औषध, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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