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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २६७ ही की है । मैंने यह भी अनधिकार चेष्टा की है कि संसारके अधिक-से-अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहूँ, वैसा वे परिणमन करें । उनको वृत्ति मेरे अनुकूल हो। पर मर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। तू तो केवल अपने परिणमनपर अर्थात् अपने विचारों और क्रियापर ही अधिकार रख सकता है। परपदार्थोपर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? तेरी यह अनधिकार चेष्टा ही राग और द्वेषको उत्पन्न करती है। तू चाहता है कि शरीर, स्त्री, पुत्र, परिजन आदि सब तेरे इशारेपर चलें। संसारके समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू त्रैलोक्यको अपने इशारेपर नचानेवाला एकमात्र ईश्वर बन जाय । यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिस तरह संसारके अधिकतम पदार्थों को अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मढ़ चेतन भी यही दुर्वासना लिये हुए हैं और दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करना चाहते हैं। इसी छीना-झपटीमें संघर्ष होता है, हिंसा होती है, राग-द्वेष होते हैं और होता है अन्ततः दुःख ही दुःख। सुख और दुःखकी स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहे सो होवे, इसे कहते हैं सुख और चाहे कुछ और होवे कुछ या जो चाहे वह न होवे इसे कहते हैं दुःख ।' मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा इष्टका संयोग रहे और अनिष्टका संयोग न हो । समस्त भौतिक जगत और अन्य चेतन मेरे अनुकूल परिणति करते रहें, शरीर नीरोग हो, मृत्यु न हो, धनधान्य हों, प्रकृति अनुकूल रहे आदि न जाने कितने प्रकारकी चाह इस शेखचिल्ली मानवको होती रहती है। बुद्धने जिस दुःखको सर्वानुभूत बताया है, वह सब अभावकृत ही तो है। महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया है 'स्वरूपको मर्यादाका अज्ञान', यदि मनुष्यको यह पता हो कि-'जिनकी मैं चाह करता हूँ, और जिनकी तृष्णा करता हूँ, वे पदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं तों एक चिन्मात्र हूँ तो उसे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी। सारांश यह कि दुःखका कारण तृष्णा है, और तृष्णाकी उद्भति स्वाधिकार एवं स्वरूपके अज्ञान या मिथ्याज्ञानके कारण होती है, परपदार्थोंको अपना माननेके कारण होती है। अतः उसका उच्छेद भी स्वस्वरूपके सम्यग्ज्ञान यानी स्वपरविवेकसे ही हो सकता है। इस मानवने अपने स्वरूप और अधिकारकी सीमाको न जानकर सदा मिथ्याज्ञान किया है और परपदार्थोके निमित्तसे जगत में अनेक कल्पित ऊँच-नीच भावोंकी सृष्टि कर मिथ्या अहंकारका पोषण किया है। शरीराश्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण, क्षत्रियादि वर्गों को लेकर ऊँच-नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति खड़ी कर, मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया, जो एक उच्चाभिमानी मांसपिण्ड दुसरेकी छायासे या दूसरेको छनेसे अपनेको अपवित्र मानने लगा। बाह्य परपदार्थोके संग्रही और परिग्रहीको महत्त्व देकर इसने तृष्णाकी पूजा की। जगतमें जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब परपदार्थों को छोना-झपटीके कारण हुई हैं। अतः जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक स्वरूपको तथा तृष्णाके मूल कारण ‘परमें आत्मबुद्धि'को नहीं समझ लेता तब तक दुःख-निवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती । बद्धने संक्षेपमें पाँच स्कन्धोंको दुःख कहा है। पर महावीरने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको भी बताया। चूंकि ये स्कन्ध आत्मस्वरूप नहीं हैं, अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावोंका सर्जक है और दुःखस्वरूप है । निराकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्ठा और परपदार्थोसे ममत्वका हटाना ही है। इसके लिए आत्माकी यथार्थदृष्टि ही आवश्यक है। आत्मदर्शनका यह रूप परपदार्थों में द्वेष करना नहीं सिखाता, किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी यह तृष्णा फैल रही है, वह अनधिकार चेष्टा है। वास्तविक अधिकार तो तम्हारा मात्र अपने विचार अपने व्यवहारपर ही है। अतः आत्माके वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हा बिना दुःखनिवृत्ति या मुक्तिकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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