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________________ तत्त्व-निरूपण तत्त्वव्यवस्थाका प्रयोजन तत्त्वज्ञानकी आवश्यकता रोगके कारण, रोगमुक्ति पदार्थव्यवस्थाकी दृष्टिसे यह विश्व षट्द्रव्यमय है, परन्तु मुमुक्षुको जिनके मुक्ति के लिए है, वे तत्त्व सात हैं । जिस प्रकार रोगीको रोग मुक्ति के लिए रोग, और रोगमुक्तिका उपाय इन चार बातोंका जानना चिकित्साशास्त्रमें आवश्यक बताया है, उसी तरह मोक्षकी प्राप्तिके लिए संसार, संसारके कारण, मोक्ष और मोक्षके उपाय इस मूलभूत चतुर्व्यूहका जानना नितान्त आवश्यक है । विश्वव्यवस्था और तत्त्वनिरूपणके जुदे-जुदे प्रयोजन हैं । विश्वव्यवस्थाका ज्ञान न होनेपर भी तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी साधना की जा सकती है, पर तत्त्वज्ञान न होनेपर विश्वव्यवस्थाका समग्र ज्ञान भी निरर्थक और अनर्थक हो सकता है । रोगी के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि वह अपनेको रोगी समझे । जब तक उसे अपने रोगका भान नहीं होता, तब तक वह चिकित्सा के लिए प्रवृत्त ही नहीं हो सकता । रोगके ज्ञानके बाद रोगीको यह जानना भी आवश्यक है कि उसका रोग नष्ट हो सकता है । रोगकी साध्यताका ज्ञान ही उसे चिकित्सा में प्रवृत्ति कराता है । रोगीको यह जानना भी आवश्यक है कि यह रोग अमुक कारणोंसे उत्पन्न हुआ है, जिससे वह भविष्य में उन अपथ्य आहार-विहारोंसे बचा रहकर अपनेको नीरोग रख सके । रोगको नष्ट करनेके उपायभूत औषधोपचारका ज्ञान तो आवश्यक है ही; तभी तो मौजूदा रोगका औषधोपचारसे समूल नाश करके वह स्थिर आरोग्यको पा सकता है । इसी तरह 'आत्मा बँधा है, इन कारणोंसे बँधा है, वह बन्धन टूट सकता है और इन उपायोंसे टूट सकता है।' इन मूलभूत चार मुद्दोंमें तत्त्वज्ञानकी परिसमाप्ति भारतीय दर्शनोंने की है । बौद्धोंके चार आर्यसत्य म० बुद्धने भी निर्वाणके लिए चिकित्साशास्त्रकी तरह दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इन चार आर्यं सत्योंका उपदेश दिया । वे कभी भी 'आत्मा क्या है, परलोक क्या है' आदिके दार्शनिक विवादों में न तो स्वयं गये और न शिष्योंको ही जाने दिया । इस सम्बन्धका बहुत उपयुक्त उदाहरण मिलिन्द प्रश्नमें दिया गया है कि 'जैसे किसी व्यक्तिको विषसे बुझा हुआ तीर लगा हो और जब बन्धुजन उस तीरको निकालने के लिए विषवैद्यको बुलाते हैं, तो उस समय उसकी यह मीमांसा करना जिस प्रकार निरर्थक है कि 'यह तीर किस लोहेसे बना है ? किसने इसे बनाया ? कब बनाया यह कबतक स्थिर रहेगा ? यह विषवैद्य किस गोत्रका है ?' उसी तरह आत्माकी नित्यता और परलोक आदिका विचार निरर्थक है, वह न तो बोधिके लिए और न निर्वाणके लिए ही उपयोगी है । इन आर्यसत्योंका वर्णन इस प्रकार है। दुःख सत्य - जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, शोक, परिवेदन, विकलता, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इष्टाप्राप्ति आदि सभी दुःख हैं । संक्षेप में पाँचों उपादान स्कन्ध ही दुःखरूप हैं । समुदय- सत्य — कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तृष्णा दुःखको उत्पन्न करने के कारण समुदय कही जाती है। जितने इन्द्रियोंके प्रिय विषय हैं, इष्ट रूपादि हैं, इनका १. " सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा । निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रमः ॥ " - अभिध० को ० ६।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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