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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २४९ कुर्वन्तीति व्याख्यानामाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । 'उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिबलवान्' इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचे लक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः ।" अर्थात् भगवती आराधनाके अभिप्रायानुसार असमर्थ या दोषयुक्त शरीरवाले साधु शीतकालमें वस्त्र ले लेते हैं, पर वे न तो उसे धोते हैं न सीते हैं और न उसके लिए प्रयत्न ही करते हैं, दूसरे समयमें उसे छोड़ देते हैं। उत्सर्गलिंग तो अचेलकता है पर आर्या असमर्थ और दोषयुक्त शरीरवालोंकी अपेक्षा अपवादलिंगमें भी दोष नहीं है। भगवती आराधना (गा० ४२१ ) की अपराजितसूरिकत विजयोदया टीकामें कारणापेक्ष यह अपवादमार्ग स्वीकार किया गया है । इसका कारण स्पष्ट है कि अपराजितसूरि यापनीयसंघके आचार्य थे और यापनीय आगमवाचनाओंको प्रमाण मानते थे। उन आगमोंमें आए हुए उल्लेखोंके समन्वयके लिए अपराजितसूरिने यह व्यवस्था स्वीकार की है। परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे, वे कैसे इस चक्करमें आ गये ? भाषा और शैली-तत्त्वार्थवृत्तिकी शैली सरल और सुबोध है। प्रत्येक स्थानमें नतन पर सुमिल शब्दोंका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। सैद्धान्तिक बातोंका खुलासा और दर्शनगुत्थिर्यो के सुलझानेका प्रयत्न स्थान-स्थानपर किया गया है । भाषाके ऊपर तो श्रुतसागरसूरिका अद्भुत अधिकार है । जो क्रिया एक जगह प्रयुक्त है वही दूसरे वाक्यमें नहीं मिल सकती। प्रमाणोंको उद्धृत करने में तो इनके श्रुतसागरत्वका पूरा पूरा परिचय मिल जाता है। इस वृत्तिमें निम्नलिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका उल्लेख नाम लेकर किया गया है । अनिर्दिष्टकर्तृक गाथाएँ और श्लोक भी इस वृत्तिमें पर्याप्त रूपमें संगृहीत हैं। इस वृत्तिमें उमावामी ( उमास्वाति भी ) समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र देव, योगीन्द्र देव, मतिसागर, देवेन्द्रकीर्तिभट्टारक आदि ग्रन्थकारोंके तथा सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, अष्टसहस्री, भगवतीआराधना, संस्कृतमहापुराणपंजिका, प्रमेयकमलमात्तंण्ड, न्यायकूम दचन्द्र आदि ग्रन्थोंके नामोल्लेख है। इनके अतिरिक्त सोमदेवके यशस्तिलकचम्पू, आशाधरके प्रतिष्ठापाठ, वसुनन्दिश्रावकाचार, आत्मानुशासन, आदिपुराण, त्रिलोकसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, पंचसंग्रह, प्रमेयकमलमार्तण्ड, बारसअणुवेक्खा, परमात्मप्रकाश, आराधनासार, गोम्मटसार, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्रुतभक्ति, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, नीतिसार, द्रव्यसंग्रह, कातन्त्रसूत्र, सिद्धभक्ति, हरिवंशपुराण, षड्दर्शनसमुच्चय, पाणिनिसूत्र , इष्टोपदेश, न्यायसंग्रह ज्ञानार्णव, अष्टांगहृदय, द्वात्रिंशद्वात्रिंशतिका, शाकटायनव्याकरण, तत्त्वसार, सागारधर्मामत आदि ग्रन्थोंके श्लोक गाथा आदि उद्धृत किये गये हैं। इस प्रकार यह वत्ति अतिशयपाण्डित्लपूर्ण और प्रमाणसंग्रहा है। श्रुतसागरसूरिने इसे सर्वोपयोगी बनानेका पूरा प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार इस विभागमें सूत्रकार उमास्वामी और वृत्तिकारके समय आदिका परिचय कराना अवसर प्राप्त है। सत्रकार उमास्वामीके संबंधमें अनेक विवाद है-वे किस आम्नायके थे? क्या तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जानेवालो प्रशस्ति उनकी लिखो है ? क्या तत्त्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ नहीं है ? मूल सूत्रपाठ कौन है ? वे कब हुए थे ? आदि । इन संबंधमें श्रीमान् पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसत्रकी प्रस्तावनामें पर्याप्त विवेचन किया है और उमास्वामीको श्वे० परम्पराका बताया है, तत्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ है और उसकी प्रशस्तिमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं है। इनने उमास्वामीके समयकी अवधि विक्रमकी दूसरीसे पाँचवीं सदी तक निर्धारित की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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