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________________ २४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ श्रुतसागरसूरि अनेक शास्त्रोंके पण्डित थे । उनने स्वयं ही अपना परिचय प्रथम अध्याय की पुष्पिका में दिया है। उसका भाव यह है-'अनवद्य गद्य पद्य विद्याके विनोदसे जिनकी मति पवित्र है, उन मतिसागर यतिराजकी प्रार्थनाको पूरा करने में समर्थ, तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार साहित्यादिशास्त्रमें जिनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, देवेन्द्रकीर्ति भट्टारकके प्रशिष्य और विद्यानन्दिदेवके शिष्य श्रुतसागरसूरिके द्वारा रचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रचण्ड-अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंके पाण्डित्यका प्रदर्शन करानेवाली तत्त्वार्थटीकाका प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।" इन्होंने अपनेको स्वयं कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, ताकिका शिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे भी अलंकृत किया है। इन्होंने सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायके उद्घाटनका पूरा-पूरा प्रयत्न किया है । सत्संख्यासूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके सूत्रात्मक वाक्योंकी उपपत्तियाँ इसका अच्छा उदाहरण है । जैसे १-सर्वार्थसिद्धिमें क्षेत्रप्ररूपणामें सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्येय भाग, असंख्येय बहुभाग और सर्वलोक बताया है। इसका अभिप्राय इस प्रकार बताया है-"लोकका असंख्येय भाग दण्ड, कपाट, समुद्घातकी अपेक्षा है । सो कैसे ? यदि केवली कायोत्सर्गसे स्थित है तो दण्ड समुद्घातको प्रथम समयमें बारह अंगुल प्रमाण समवृत्त या मूलशरीर प्रमाण समवृत्त रूपसे करते हैं। यदि बैठे हुए हैं तो शरीरसे तिगुना या वातवलयसे कम पूर्ण लोक प्रमाण दण्ड समुद्घात करते हैं । यदि पूर्वाभिमुख हैं तो कपाट समुद्घातको उत्तर-दक्षिण एक धनुषप्रमाण प्रथम समयमें करते हैं। यदि उत्तराभिमुख हैं तो पूर्व-पश्चिम करते हैं । इस प्रकार लोकका असंख्यातकभाग होता है। प्रतर अवस्थामें केवली तीन वातवलयकम पूर्ण लोकको निरन्तर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त करते हैं । अतः लोकका असंख्यात बहुभाग क्षेत्र हो जाता है। पूरण अवस्थामें सर्वलोक क्षेत्र हो जाता है। २-वेदकसम्यक्त्वकी छयासठ सागर स्थिति-सौधर्मस्वर्गमें २ सागर, शुक्रस्वर्ग में १६ सागर, शतारमें १८ सागर, अष्टम ग्रैवेयकमें ३० सागर, इस प्रकार छयासठ सागर हो जाते हैं। अथवा सौधर्ममें दो बार उत्पन्न होनेपर ४ सागर, सनत्कुमारमें ७ सागर, ब्रह्म स्वर्गमें १० सागर, लान्तवमें १४ सागर, नवम वेयकमें ३१ सागर, इस प्रकार ६६ सागर स्थिति होती है । अन्तिम प्रैवेयककी स्थितिमें मनुष्यायुओंका जितना काल होगा उतना कम समझना चाहिये। ३-सासादन सम्यग्दृष्टिका लोकका देशोन ८ भाग या १२ भाग स्पर्शन-परस्थान विहारकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टि देव नीचे तीसरे नरक तक जाते हैं तथा ऊपर अच्युत स्वर्ग तक । सो नीचे दो राजू और ऊपर ६ राजू, इस प्रकार आठ राजू हो जाते हैं। छठवें नरकका सासादन मारणान्तिक समुद्घात मध्यलोक तक ५ राजू और लोकान्तवर्ती बादरजलकाय या वनस्पतिकायमें उत्पन्न होनेके कारण ७ राजू, इस प्रकार १२ राजू हो जाते हैं। कुछ प्रदेश सासादनके स्पर्शयोग्य नहीं होते अतः देशोन समझ लेना चाहिए। ___ इस प्रकार समस्त सूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायको खोलनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है। न केवल इसी सूत्रको ही, किन्तु समग्र ग्रन्थको ही लगानेका विद्वत्तापूर्ण प्रयास किया गया है। । परन्तु शास्त्रसमुद्र इतना अगाध और विविध भंग तरंगोंसे युक्त है कि उसमें कितना भी कुशल अवगाहक क्यों न हो चक्करमें आ ही जाता है । इसीलिए बड़े-बड़े आचार्योंने अपने छद्मस्थज्ञान और चंचल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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