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________________ २४० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अनल, अनिल, आकाश और तमके आधार ( आश्रय ) हैं। महानरकोंके अतिरिक्त कुम्भीपाक आदि अनन्त उपनरक भी हैं । इन नरकोंमें अपने-अपने कर्मों के अनुसार दीर्घायुवाले प्राणी उत्पन्न होकर दुःख भोगते हैं। अवीचिनरकसे नीचे सात पाताललोक हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं-महातल, रसातल, अतल, सुतल, वितल, तलातल और पाताल । भूल कका विस्तार-इस पृथ्वीपर सात द्वीप हैं । भूलोकके मध्यमें सुमेरु नामक स्वर्णमय पर्वतराज है जिसके शिखर रजत, वंडूर्य, स्फटिक, हेम और मणिमय है । सुमेरु पर्वतके दक्षिणपूर्वमें जम्बू नामका वृक्ष है जिसके कारण लवणोदधिसे वेष्टित द्वीपका नाम जम्बूद्वीप है। सूर्य निरन्तर मेरुको प्रदक्षिणा करता रहता है । मेरुसे उत्तरदिशामें नील, श्वेत और शृंगवान् ये तीन पर्वत हैं । प्रत्येक पर्वतका विस्तार दो हजार योजन है। इन पर्वतोंके बीच में रमणक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ योजन है । नीलगिरि मेरुसे लगा हुआ है । नीलगिरिके उत्तरमें रमणक क्षेत्र है । श्वेतपर्वतके उत्तरमें हिरण्यमय क्षेत्र है। शृंगवान् पर्वतके उत्तरमें उत्तरकुरु है। मेरुसे दक्षिण दिशामें भी निषध, हेमकूट और हिम नामक दो-दो हजार योजन विस्तारवाले तीन पर्वत हैं। इन पर्वतोंके बीच में हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत ये तीन क्षेत्र है । प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है। मेरुसे पूर्वमें माल्यवान् पर्वत है । माल्यवान् पर्वतसे समुद्रपर्यन्त भद्राश्व नामक देश है-इस देशमें भद्राश्वनामक क्षेत्र है । मेरुसे पश्चिममें गन्धमादन पर्वत है । गन्धमादन पर्वतसे समुद्रपर्यन्त केतुमाल नामक देश है-क्षेत्रका नाम भी केतुमाल है। मेरुके अधोभागमें इलावृत नामक क्षेत्र है। इसका विस्तार पचास हजार योजन है । इस प्रकार जम्बूद्वीपमें नौ क्षेत्र हैं। एक लाख योजन विस्तारवाला यह जम्ब द्वीप दो लाख योजन विस्तारवाले लवण समद्रसे घिरा हुआ है। जम्बद्वीपके विस्तारसे क्रमशः दन-दने विस्तार वाले छह द्वीप और हैं-शाक, कुश, क्रौञ्च, शाल्मल, मगध और पुष्करद्वीप। सातों द्वीपोंको घेरे हुए सात समुद्र हैं। जिनके पानीका स्वाद क्रमशः इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि, मांड, दूध और मीठा जैसा है। सातों द्वीप तथा सातों समद्रों का परिमाण पचास करोड़ योजन है। पातालोंमें, समुद्रोंमें और पर्वतोपर असुर, गन्धर्व, किन्नर, किम्पुरुष, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच आदि देव रहते हैं । सम्पूर्ण द्वीपोंमें पुण्यात्मा देव और मनुष्य रहते हैं। मेरु पर्वत देवोंकी उद्यानभूमि है। वहाँ मिश्रवन, नन्दन, चैत्ररथ, सुमानस इत्यादि उद्यान हैं। सुधर्मा नामकी देवसभा है । सुदर्शन नगर है तथा इस नगरमें बैजयन्त प्रासाद है । ग्रह, नक्षत्र और तारा ध्रुव ( ज्योतिर्विशेष) मेरुके ऊपर स्थित है । इनका भ्रमण वायुके विक्षेपसे होता है। स्वर्लोकका वर्णन-माहेन्द्रलोकमें छह देवनिकाय हैं-त्रिदश, अग्निष्वात्तायाम्य, तुषित, अपरिनिर्मितवशवति और परिनिर्मितवशवति । ये देव संकल्पसिद्ध ( संकल्पमात्रसे सब कुछ करनेवाले ) अणिमा आदि ऋद्धि तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न, एक कल्पकी आयु वाले, औपपादिक ( माता-पिताके संयोगके बिना लक्षणमात्रमें जिनका शरीर उत्पन्न हो जाता है) तथा उत्तमोत्तम अप्सराओंसे युक्त होते हैं। महर्लोकमें पांच देवनिकाय हैं-कमद, ऋभव, प्रतर्दन, अज्जनाभ और प्रचिताभ । ये देव महाभतोंको वशमें रखने में स्वतन्त्र होते हैं तथा ध्यानमात्रसे तृप्त हो जाते हैं। इनकी आयु एक हजार कल्पकी है। प्रथम ब्रह्मलोक ( जनलोक में) चार देवनिकाय हैं-ब्रह्मपुरोहित, ब्रह्मकायिक, प्रब्रह्म महाकायिक और अमर । ये देव भूत और इन्द्रियों को वशमें रखनेवाले होते हैं । ब्रह्मपुरस्थित देवोंकी आयु दो हजार कल्पकी है। अन्य देव निकायोंमें आयु क्रमशः दूनी-दूनी है। द्वितीय ब्रह्मलोकमें ( तपोलोकों ) तीन देवनिकाय हैं-आभास्वर, महाभास्वर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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