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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २३३ नय-दुर्नय-नय वस्तुके एक अंशको ग्रहण करके भी अन्य धर्मोंका निराकरण नहीं करता उन्हें गौण करता है। दुर्नय अन्यधर्मोंका निराकरण करता है। नय साक्षेप होता है दुर्नय निरपेक्ष । प्रमाण उभयधर्मग्राही हैं। अकलङ्कदेवने बहुत सुन्दर लिखा है-"धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्नयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च, प्रमाणात तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च" ( अष्टाश० अष्टसह० पृ० २९० ) अर्थात् प्रमाण तत् और अतत् सभी अंशोंसे पूर्ण वस्तुको जानता है, नयसे केवल तत्विवक्षित अंशकी प्रतिपत्ति होती है और दुर्नय अपने अविषय अंशोंका निराकरण करता है। नय धर्मान्तरोंकी उपेक्षा करता है जबकि दुर्नय धर्मान्तरोंकी हानि अर्थात निराकरण करनेकी दृष्टता करता है। प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी होता है। यद्यपि दोनोंका कथन शब्दसे होता है फिर भी दृष्टिभेद होनेसे यह अन्तर हो जाता है। यथा, 'स्यादस्ति घटः' यह वाक्य जब सकलादेशी होगा तब अस्तिके द्वारा पूर्ण वस्तुको ग्रहण कर लेगा । जब यह विकालदेशी होगा तब अस्तिको मुख्यतया शेषधर्मोको गौण करेगा । विकलादेशी नय विवक्षित एक धर्मको मुख्यरूपसे तथा शेषको गौणरूपसे ग्रहण करते हैं जबकि सकलादेशी प्रमाणका प्रत्येक वाक्य पूर्ण वस्तुको समानभावसे ग्रहण करता है। सकलादेशी वाक्योंमें भिन्नताका कारण है-शब्दोच्चारणकी मुख्यता। जिस प्रकार एक पूरे चौकोण कागजको क्रमशः चारों कोने पकड़कर पूराका पूरा उठाया जा सकता है उसी प्रकार अनन्तधर्मा वस्तुके किसी भी धर्म के द्वारा पुरीकी पूरी वस्तु ग्रहण की जा सकती है। इसमें वाक्योंमें परस्पर भिन्नता इतनी ही है कि उस धर्म के द्वारा या तद्वाचक शब्दप्रयोग करके वस्तुको ग्रहण कर रहे हैं । इसी शब्दप्रयोगकी मुख्यता से प्रमाणसप्तभंगीका प्रत्येक वाक्य भिन्न हो जाता है। नयसप्तभंगीमें एक धर्मप्रधान होता है तथा अन्यधर्म गौण । इसमें मुख्यधर्म ही गृहीत होता है, शेषका निराकरण तो नहीं होता पर ग्रहण भी नहीं होता। यही सकलादेश और विकलादेशका पार्थक्य है । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग दोनोंमें होता है । सकलादेशमें प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द यह बताता है कि जैसे अस्तिमुखेन सकल वस्तुका ग्रहण किया गया है वैसे 'नास्ति' आदि अनन्त मुखोंसे भी ग्रहण हो सकता है। विकलादेशका स्यात् शब्द विवक्षित धर्मके अतिरिक्त अन्य शेष धर्मोंका वस्तुमें अस्तित्व सूचित करता है। स्याद्वाद का कथन प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ के खण्ड ४ में पृष्ठ ८२, ८३, ८४ में दिया चुका है । संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्धने कह दिया कि इनके चक्करमें न पड़ो, इसका जानना उपयोगी नहीं है, तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिके अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्योंको जिज्ञासा का समाधान कर उनकी बौद्धिक दीनतासे त्राण दिया। इन प्रश्नोंका विस्तृत स्वरूप विवेचन प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थके इसी खण्ड के पृष्ठ ९० से ९६ पर दिया जा चुका है । सदादि अनुयोग-प्रमाण और नयके द्वारा जाने गए तथा निक्षेपके द्वारा अनेक संभवित रूपोंमें सामने रखे गए पदार्थोसे ही तत्त्वज्ञानोपयोगी प्रकृत अर्थका यथार्थ बोध हो सकता है। उन निक्षेपके विषयभत पदार्थों में दृढ़ताकी परीक्षाके लिए या पदार्थ के अन्य विविध रूपोंके परिज्ञानके लिए अनुयोग अर्थात अनुकल प्रश्न या पश्चाद्भावी प्रश्न होते हैं । जिनसे प्रकृत पदार्थकी वास्तविक अवस्थाका पता लग जाता है। प्रमाण और नय सामान्यतया तत्त्वका ज्ञान कराते हैं। निक्षेप विधिसे अप्रकृतका निराकरण कर प्रस्तुतको छांट लिया जाता है। फिर छंटी हुई प्रस्तुत वस्तुका निर्देशादि और सदादि द्वारा सविवरण पूरी अवस्थाओंका ज्ञान किया जाता है । निक्षेपसे छंटी हुई वस्तुका क्या नाम है ? ( निर्देश) कौन उसका स्वामी है ? (स्वामित्व) कैसे उत्पन्न होती है ? ( साधन ) कहाँ रहती है ? ( अधिकरण ), कितने काल तक रहती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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