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________________ २३० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ है । राजाविषयक संशयका निराकरण कर विवक्षित राजाविषयक यथार्थबोध करा देना ही निक्षेपका कार्य । इसी तरह बुलाना भी अनेक प्रकारका होता है । तो 'राजाको बुलाओ' इस वाक्यमें जो वर्तमान शासनाधिकारी है वह भावराजा विवक्षित है, न शब्दराजा, न ज्ञानराजा, न लिपिराजा, न मूर्तिराजा, न भावीराजा आदि । पुरानी परम्परामें अपने विवक्षित अर्थका सटीक ज्ञान करानेके लिए प्रत्येक शब्दके संभावित वाच्यार्थीको सामने रखकर उनका विश्लेषण करनेकी परिपाटी थी । आगमोंमें प्रत्येक शब्दका निक्षेप किया गया है । यहाँ तक कि 'शेष' शब्द और 'च' शब्द भी निक्षेप विधिमें भुलाये नहीं गये हैं । शब्द, ज्ञान और अर्थ तीन प्रकारसे व्यवहार चलते हैं । कहीं शब्दव्यवहारसे कार्य चलता है तो कहीं ज्ञानसे, तो कहीं अर्थसे । बच्चे को डरानेके लिए शेर शब्द पर्याप्त है । शेरका ध्यान करने के लिए शेरका ज्ञान भी पर्याप्त है । पर सरकस में तो शेर पदार्थ ही चिंघाड़ सकता है । विवेचनीय पदार्थ जितने प्रकारका हो सकता है उतने सब संभावित प्रकार सामने रखकर अप्रस्तुतका निराकरण करके विवक्षित पदार्थको पकड़ना निक्षेप है । तत्त्वार्थसूत्रकारने इस निक्षेपको चार भागों में है-शब्दात्मक व्यवहारका प्रयोजक नामनिक्षेप है, इसमें वस्तुमें उस प्रकारके गुण, जाति, क्रिया आदिका नाम भी नयनसुख हो सकता है। । ज्ञानात्मक व्यवहारका प्रयोविवक्षित वस्तुकी स्थापना कर होना आवश्यक नहीं है जैसा उसे नाम दिया जा रहा है। किसी अन्धेका और किसी सूखकर काँटा हुए दुर्बल व्यक्तिको भी महावीर कहा जा सकता है जक स्थापना निक्षेप है | इस निक्षेपमें ज्ञानके द्वारा तदाकार या अतदाकार में ली जाती है और संकेत ज्ञानके द्वारा उसका बोध करा दिया जाता है । अर्थात्मक निक्षेप द्रव्य और भावरूप होता है । जो पर्याय आगे होनेवाली है उसमें योग्यता के बलपर आज भी वह व्यवहार करना अथवा जो पर्याय हो चुकी है उसका व्यवहार वर्तमान में भी करना द्रव्यनिक्षेप है जैसे युवराजको राजा कहना और राजपदका जिसने त्याग कर दिया है उसको भी राजा कहना । वर्तमानमें उस पर्यायवाले व्यक्तिमें ही वह व्यवहार करना भावनिक्षेप है, जैसे सिहासन स्थित शासनाधिकारीको राजा कहना । आगमोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिको मिलाकर यथासंभव पाँच, छह और सात निक्षेप भी उपलब्ध होते हैं परन्तु इस निक्षेपका प्रयोजन इतना ही है कि शिष्यको अपने विवक्षित पदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान हो जाय । धवला टीकामे ( पृ० ३१ ) निक्षेपके प्रयोजनोंका संग्रह करनेवाली यह प्राचीन गाथा उद्धृत है "अवगयनिवारणट्ठ पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणट्ठ तच्चत्थवधारणट्ठ च ॥" अर्थात् - अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए, प्रकृतका निरूपण करनेके लिए, संशयका विनाश करतेके लिए और तत्त्वार्थका निर्णय करनेके लिए निक्षेपकी उपयोगिता है । प्रमाण, नय और स्याद्वाद - निक्षेप विधिसे वस्तुको फैलाकर अर्थात् उसका विश्लेषण कर प्रमाण और नयके द्वारा उसका अधिगम करनेका क्रम शास्त्रसम्मत और व्यवहारोपयोगी है। ज्ञानको गति दो प्रकार से वस्तुको जाननेकी होती है। एक तो अमुक अंशके द्वारा पूरी वस्तुको जानने की और दूसरी उसी अमुक अंशको जाननेकी । जब ज्ञान पूरी वस्तुको ग्रहण करता है तब वह प्रमाण कहा जाता है तथा जब वह एक अंशको जानता है तब नय । पर्वतके एक भागके द्वारा पूरे पर्वतका अखण्ड भावसे ज्ञान प्रमाण है और उसी अंशका ज्ञान नय है | सिद्धान्तमें प्रमाणको सकलादेशी तथा नयको विकलादेशी कहा है उसका यही तात्पर्य है कि प्रमाण ज्ञात वस्तुभागके द्वारा सकल वस्तुको ही ग्रहण करता है जब कि नय उसी विकल अर्थात् एक अंशको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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