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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २२७ रास्ते में पड़ा हुआ एक पत्थर सैकड़ों जीवोंके सैकड़ों प्रकारके परिणमनमें तत्काल निमित्त बन जाता है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पत्थर को उत्पन्न करने में उन सैकड़ों जीवोंके पुण्य-पापने कोई कार्य किया है । संसारके पदार्थों की उत्पत्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है। उत्पन्न पदार्थ एक दूसरेकी साता असाताके लिए कारण हो जाते हैं। एक ही पदार्थ समयभेदसे एकजीव या नानाजीवोंके राग-द्वेष और उपेक्षाका निमित्त होता रहता है। किसीका कालिक रूप सदा एकसा नहीं रहता। अतः कर्मका सम्यग्दर्शन करके हमें अपने पुरुषार्थको पहिचान कर स्वात्मदृष्टि हो तदनुकूल सत्पुरुषार्थमें लगना चाहिए। वही पुरुषार्थ सत् है जो आत्मस्वरूप का साधक हो और आत्माधिकारकी मर्यादाको न लाँघता हो। संसारके अनन्त अचेतन पदार्थोंका परिणमन यद्यपि उनकी उपादान योग्यताके अनुसार होता है पर उनका विकास पुरुष निमित्तसे अत्यधिक प्रभावित होता है । प्रत्येक परमाणुमें पुद्गलकी वे सब शक्तियाँ हैं जो किसी भी एक पुद्गलाण द्रव्यमें हो सकती हैं अतः उपादान योग्यताकी कमी तो किसी में भी नहीं है । रह जाती है पर्याययोग्यता, सो पर्याययोग्यता, परिणमनोंके अनुसार बदल जायगी। रेत पर्यायसे मामूली कुम्हार आदि निमित्तोंसे घटरूप परिणमनका विकास नहीं हो सकता जैसे कि मिट्टीका हो जाता है पर काँचकी भट्टीमें या चीनी मिट्टीके कारखाने में उसी रेत पर्यायका कांचके घड़े रूपसे और चीनी मिट्टीके घड़े रूपसे स्थिरतर सुन्दर परिणमन विकसित हो जाता है। अचेतन पदार्थोके परिणमन जैसे स्वतः बुद्धिशन्य होनेके कारण संयोगाधीन हैं वैसे चेतन पदार्थोके परिणमन मात्र संयोगाधीन ही नहीं है । जबतक यह आत्मा परतन्त्र है तबतक उसे कुछ संयोगाधीन परिणमन करना भी पड़ते हों फिर भी वह उन संयोगोंसे मुक्त होकर उन परिणमनोंसे मुक्ति पा सकते हैं । चेतन अपनी स्वशक्तिकी तरतमताके अनुसार अपने परिणमनोंमें स्वाधीन बन सकता है । उसमें कर्म अर्थात् हमारे पुराने संस्कार तभी तक बाधक हो सकते हैं जबतक हम अपने प्रयोगों द्वारा उनपर विजय नहीं पा लेते । उन पुराने संस्कार और विकारोंसे जो पुद्गलद्रव्य हमारी आत्मासे बँधा था, उसको अपनी स्वतः सामर्थ्य कुछ नहीं है उसे बल तो हमारे संस्कार और हमारी वासनाओंसे ही प्राप्त होता है। . ___ इसके सम्बन्धमें सांख्यकारिकामें बहुत उपयुक्त दृष्टान्त वेश्या का दिया है। जिस प्रकार वेश्या हमारी वासनाओंका बल पाकर ही हमें नानाप्रकारसे नचाती है, हम उसके इशारेपर चलते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानते है, चमते हैं, चाँटते हैं, जैसा वह कहती है वैसा करते हैं। पर जिस समय हम स्वयं वासनानिर्मुक्त होकर स्वरूपदर्शी होते हैं उस समय वेश्या का बल समाप्त हो जाता है और वह हमारी गुलाम होकर हमें रिझानेकी चेष्टा करती है, पुनः वासना जाग्रत करने का प्रयत्न करती है। यदि हम पक्के रहे तो वह स्वयं असफल प्रयत्न होकर हमें छोड़ देती है, और समझती है कि अब इनपर रंग नहीं जम सकता । यही हालत कर्मपुद्गलकी है। वह तो हमारी वासनाओंका बल पाकर ही सस्पन्द होता है। बंधा भी हमारी वासनाओंके कारण ही था और छूटेगा या निःसार होगा तो हमारी वासनानिर्मुक्त परिणतिसे ही। कर्मका बल हमारी वासना है और वह यदि निर्बल होगा तो हमारी वीतरागतासे ही । शास्त्रोंमें मोहनीयको कर्मोंका राजा कहा है और ममकार तथा अहंकारको मोहराजका मन्त्री। मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन, राग और द्वेष । बाह्य पदार्थों में ये 'मेरे हैं' इस ममकारसे तथा 'मैं ज्ञानी हूँ" 'रूपवान्' हूँ इत्यादि अहंकारसे राग द्वेषकी सृष्टि होती है और मोहराज की सेना तैयार हो जाती है। जिस समय इस मोहराजका पतन हो जाता है उस समय सेना अपने आप निऊर्य होकर तितर-बितर हो जाती है । साथ रह गया इन कुभावोंके साथ बँधने वाला पुद्गल । सो वह तो विचारा पर द्रव्य है । वह यदि आत्मामें पड़ा भी रहा तो भी हानिकारक नहीं। सिद्धशिलापर भी सिद्धोंके पास अनन्त पुद्गलाणु पड़े होंगे पर वे उनमें रागादि उत्पन्न नहीं कर सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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