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________________ १९४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ गोला जब तक गरम रहता है, पानी में उथल-पुथल पैदा करता रहता है, कुछ परमाणुओंको लेगा, कुछको निकालेगा, कुछको भाप बनाएगा, एक अजीबसी परिस्थिति समस्त वातावरण में उपस्थित कर देता है । उसी तरह जब यह आत्मा रागद्वेषादिसे उत्तप्त होता है तब शरीरमें एक अद्भुत हलनचलन उपस्थित करता है । क्रोध आते ही आँखें लाल हो जाती हैं, खूनकी गति बढ़ जाती है, मुँह सूखने लगता है, नथुने फड़कने लगते हैं । कामवासनाका उदय होते ही सारे शरीरमें एक विलक्षण प्रकारका मन्थन शुरू होता है । और जब तक वह कषाय या वासना शांत नहीं हो लेती, यह चहल-पहल -मन्थन आदि नहीं रुकता । आत्माके विचारोंके अनुसार पुद्गल द्रव्योंमें परिणमन होता है और विचारोंके उत्तेजक पुद्गल द्रव्य आत्मा के वासनामय सूक्ष्म कर्मशरीरमें शामिल होते जाते हैं । जब-जब उन कर्मपुद्गलोंपर दबाव पड़ता है तब-तब वे कर्मपुद्गल फिर उन्हीं रागादि भावोंको आत्मामें उत्पन्न कर देते हैं । इसी तरह रागादि भावोंसे नए कर्मपुद्गल कर्मशरीर में शामिल होते हैं तथा उन कर्मपुद्गलोंके परिपाकके अनुसार नूतन रागादि भावोंकी सृष्टि होती है । फिर नए कर्मपुद्गल बँधते हैं फिर उनके परिपाकके समय रागादिभाव होते हैं । इस तरह रागादिभाव और कर्म पुद्गलबन्धका चक्र बराबर चलता रहता है जबतक कि चरित्रके द्वारा रागादि भावोंको रोक नहीं दिया जाता । इस बन्ध परम्पराका वर्णन आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें इस प्रकार किया है "जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौदगलिकं कर्म तस्यापि ॥ १३ ॥ " अर्थात् जीवके द्वारा किये गए राग-द्वेष-मोह आदि परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गल परमाणु स्वतः ही कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं । आत्मा अपने चिदात्मक भावोंसे स्वयं परिणत होता है, पुद्गल कर्म तो उसमें निमित्तमात्र है । जीव और पुद्गल एक-दूसरेके परिणमनमें परस्पर निमित्त होते हैं । सारांश यह कि जीवको वासनाओं राग-द्वेष-मोह आदिकी और पुद्गल कर्मबन्धकी धारा बीजवृक्ष - सन्ततिकी तरह अनादिसे चालू है । पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे इस समय राग-द्वेष आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें जो जीवकी आसक्ति और लगन होती है वह नूतन कर्मबन्ध करती है । उस बद्धकर्मके परिपाकके समय फिर राग-द्वेष होते हैं, फिर उनमें आसक्ति और मोह होनेसे नया कर्म बँधता है । यहाँ इस शंकाको कोई स्थान नहीं है कि- ' जब पूर्वकर्मसे रागद्वेषादि तथा रागद्वेषादिसे नूतन कर्मबन्ध होता तब इस चक्रका उच्छेद ही नहीं हो सकता, क्योंकि हर एक कर्म रागद्वेष आदि उत्पन्न करेगा और हर एक रागद्वेष कर्मबन्धन करेंगे ।' कारण यह है कि पूर्वकर्मके उदयसे होनेवाले कर्मफलभूत रागद्वेष वासना आदिका भोगना कर्मबन्धक नहीं होता किन्तु भोगकालमें जो नूतन राग-द्वेषरूप अध्यवसान भाव होते हैं वे बन्धक होते हैं । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टिका कर्मभोग निर्जराका कारण होता है और मिथ्यादृष्टिका बन्धका कारण | सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मके उदयकालमें होनेवाले राग-द्वेष आदिको विवेकपूर्वक शान्त तो करता है, पर उनमें नूतन अध्यवसान नहीं करता, अतः पुराने कर्म तो अपना फल देकर निर्जीर्ण हो जाते हैं और नूतन आसक्ति न होने के कारण नवीन बन्ध होता नहीं अतः सम्यग्दृष्टि तो दोनों तरफसे हलका हो चलता है जब कि मिथ्यादृष्टि कर्मफलके समय होनेवाले राग, द्वेष, वासना आदिके समय उनमें की गई नित नई आसक्ति और लगन के परिणामस्वरूप नूतन कर्मोंको और भी दृढ़तासे बाँधता है, और इस तरह मिथ्यादृष्टिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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