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________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : १७५ रत्नकरण्डश्रावचार (१०६) में केवलिकवलाहारके खंडनमें न्यायकुमुदचन्द्रगत शब्दावलीका पूरा-पूरा अनुसरण करके लिखा है कि-'तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात् ।" इसी तरह समाधितन्त्र टीका ( पृ७ १५ ) में लिखा है कि-''यः पुनर्योगसांख्यः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ इन टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचन्द्र ईसाकी १२वीं शताब्दीके बादके विद्वान नहीं है। ३-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३ तथा स्वर्गवास वि० सं० १२२२ में हुआ था। ये वि० सं० ११७४ में आचार्यपदपर प्रतिष्ठित हुए थे। संभव है इन्होंने वि० सं० ११७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वादरत्नाकरमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभांचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका नामोल्लेख करके खंडन भी किया गया है । अतः प्रभाचन्द्रके समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० सुनिश्चित हो जाती है। ४-जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सुत्रपाठपर श्रुतकीर्तिने पंचवस्तुप्रक्रिया बनाई है। श्रतकीर्ति कनड़ीचन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके गुरु थे । अग्गलकविने शक १०११ ई० १०८९ में चन्द्रप्रभचरित पूर्ण किया था। अतः श्रुतकीर्तिका समय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने अपनी प्रक्रियामें एक न्यास ग्रन्थका उल्लेख किया है। संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर नामका ही न्यास हो । यदि ऐसा है तो प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। शिमोगा जिलेके शिलालेख नं०४६ से ज्ञात होता है कि पूज्यपादने भी जैनेन्द्र न्यासकी रचना की थी। यदि श्रतकीर्तिने न्यास पदसे पज्यपादकृत न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दसे सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया हो जा सकता है। इस तरह प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंके आधारसे हम प्रभाचन्द्रक। समय सन् ९८० से १०६५ तक निश्चित कर सकते है। इन्हीं उल्लेखोंके प्रकाशमें जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्री भोजदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेख तथा न्यायकूमदचन्द्रके 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखको देखते हैं तो वे अत्यन्त प्रामाणिक मालम होते हैं। उन्हें किसी टीका टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता। उपर्युक्त विवेचनसे प्रभाचन्द्रके समयकी पूर्वावधि और उत्तरावधि करीब-करीब भोजदेव और जयसिंह देवके समय तक ही आती है । अतः प्रमेयकमलगार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें पाए जानेवाले प्रशस्ति लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचन्द्रकर्तृतामें सन्देहको कोई स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचन्द्रका समय ई० ९८० से १०६५ तक माननेमें कोई बाधा नहीं है । १. देखो, इसी लेखका "श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र" अंश । २. प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथमसंस्करणके सम्पादक पं० बंशीधरजी शास्त्री, सोलापुरने उक्त संस्करणके उपोदघातमें श्रीभोजदेवराज्ये प्रशस्तिके अनुसार प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सचित किया है। और आपने इसके समर्थनके लिए 'नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाओंका प्रमेयकमलमार्तण्ड में उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित किया है । पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें 'विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपऐसे' गाथाएँ उद्धत है। पर ये गाथाएँ नेमिचन्द्रकृत नहीं है। पहिली गाथा धवलाटीका ( रचनाकाल ई० ८१६ ) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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