SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ परिज्ञाय मूलटिप्पणिकाञ्चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणम् अज्ञपातभीतेन श्रीमद्बला ( त्कार ) गणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ।। १०२ ।। इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं समाप्तम।" प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यमें लिखा गया है। इसकी प्रशस्तिके श्लोक रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना (१० १२० ) में उद्धृत किये गये हैं । श्लोकोंके अनन्तर-"श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपाजितामलपुण्यनिराकृताखिलमलकलङ्केन श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन महापुराणटिप्पणके शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति" यह पुष्पिकालेख है। इस तरह महापुराणपर दोनों आचार्यों के पृथक्-पृथक् टिप्पण है। इसका खुलासा प्रेमीजीके लेख से स्पष्ट हो ही जाता है । पर टिप्पण-लेखकने श्रीचन्द्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्तिलेखके अन्तमें भ्रमवश 'इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है। इसीलिए डॉ० पी० एल० वैद्यर, प्रो. हीरालालजी तथा ५० कैलाशचन्द्रजीने भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका रचनाकाल संवत् १०८० समझ लिया है । अतः इस भ्रान्त आधारसे प्रभाचन्द्रके समयकी उत्तरावधि सन् १०२० नहीं ठहराई जा सकती । अब हम प्रभाचन्द्रके समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-प्रभाचन्द्रने पहिले प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाकर ही न्यायकूमदचन्द्रकी रचना की है। मुद्रित प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें "श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपाजितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमकङ्कन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतिपरीक्षामुखपदमिदं विवतमिति ।" यह पुष्पिकालेख पाया जाता है । न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेख 'श्रीभोजदेवराज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है । अतः इस स्पष्ट लेखसे प्रभाचन्द्रका समय जयसिंहदेवके राज्यके कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। और यदि प्रभाचन्द्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि सन् ९८० मानी जानी चाहिए। श्रीमान मुख्तारसा तथा पं० कैलाशचन्द्र जी प्रमेयकमल और न्यायकमदचन्द्र के अन्तमें पाए जानेवाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्ये और जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेशखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते । मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचन्द्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचन्द्रजी इसे पीछेके किसी व्यक्तिकी करतत बताते हैं । पर प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानने में दोनोंके आधार जदे-जदे हैं। मुख्तारसा० प्रभाचन्द्रको जिनसेनके पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेवराज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते । पं० कैलाशचन्द्रजी प्रभाचन्द्रको ईसाकी १०वीं और ११वीं शताब्दीका विद्वान मानकर भी महापुराणके टिप्पणकार श्रीचन्द्र के टिप्पणके अन्तिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका अन्तिमवाक्य समझ लेनेके कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्र कृत नहीं मानना चाहते । मख्तारसा ने एक हेतु यह भी दिया है कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह अन्तिमवाक्य नहीं पाया जाता। और इसके लिए भाण्डारकर इन्स्टीट्यटको प्राचीन प्रतियोंका हवाला दिया है । मैंने भी इस १. देखो पं० नाथूरामजी प्रेमो लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष ४, किरण १। २. महापुराणकी प्रस्तावना, पृ० XIV | ३. रत्नकरण्ड-प्रस्तावना, पृ० ५९-६० । ४. न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना, पृ० १२२ । ५. रत्नकरण्ड० प्रस्तावना, पृ० ६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy