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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १६५ प्रभानन्द्रा आयुर्वेदज्ञान-प्रभाचन्द्र शुष्क तार्किक ही नहीं थे; किन्तु उन्हें जीवनोपयोगी का भी परिज्ञान था। प्रमेयकमलमार्तण्ड (५० ४२४ ) में वे बधिरता तथा अन्य कर्णरोगोंके लिए बलातैलका उल्लेख करते है । न्यायकुमुदचन्द्र (१०६६९ ) में छाया आदिको पौद्गलिक सिद्ध करते समय उनमें गणोंका सदभाव दिखानेके लिए उनने वैद्यकशास्त्रका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपसे उद्धत किया है 'आतपः कटुको रुक्षः छाया मधुरशोतला। कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं (करं ) तमः ॥ यह श्लोक राजनिघण्टु आदिमें कुछ पाठभेदके साथ पाया जाता है। इसी तरह वैशेषिकोंके गुणपदार्थका खंडन करते समय ( न्यायकु०, पृ० २७५ ) वैद्यकतन्त्रमें प्रसिद्ध विशद, स्थिर, खर, पिच्छलत्व आदि गुणोंके नाम लिए हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ८) में नड्वलोदक-तृणविशेषके जलसे पादरोगकी उत्पत्ति बताई है। प्रभाचन्द्रको कल्पनाशक्ति-सामान्यतः वस्तुकी अनन्तात्मकता या अनेकधर्मांधारताकी सिद्धिके लिए अकलंक आदि आचार्योने चित्रज्ञान, सामान्य विशेष, मेचकज्ञान और नरसिंह आदिके दृष्टान्त दिए हैं । पर प्रभाचन्द्रने एक ही वस्तुकी अनेकरूपताके समर्थनके लिए न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ३६९ ) में 'उमेश्वर' का दृष्टान्त भी दिया है । वे लिखते हैं कि जैसे एक ही शिव वामाङ्ग में उमा-पार्वतीरूप होकर भी दक्षिणाङ्गमें विरोधी शिवरूपको धारण करते है और अपने अर्धनारीश्वररूपको दिखाते हुए अखंड बने रहते हैं उसी तरह एक ही वस्तु विरोधी दो या अनेक आकारोंको धारण कर सकती है। इसमें कोई विरोध नहीं होना चाहिए। उदारविचार-आ० प्रभाचन्द्र सच्चे तार्किक थे । उनकी तर्कणाशक्ति और उदार विचारोंका स्पष्ट परिचय ब्राह्मणत्व जातिके खण्डनके प्रसङ्गमें मिलता है। इस प्रकरणमें उन्होंने ब्राह्मणत्व जातिके नित्यत्व और एकत्वका खण्डन करके उसे सदृशपरिणमन रूप ही सिद्ध किया है। वे जन्मना जातिका खण्डन बहुविध विकल्पोंसे करते हैं और स्पष्ट शब्दोंमें उसे गुणकर्मानुसारिणी मानते हैं। वे ब्राह्मणत्वजातिनिमित्तक वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदिके व्यवहारको भी क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिहसे उपलक्षित व्यक्ति-विशेषमें ही करनेकी सलाह देते है __ "ननु बाह्मणत्वादिसामान्यानभ्युपगमे कथं भवतां वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवबार स्यात? इत्यप्यचोद्यमः क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तव्यवस्थायाः तद्वयवहारस्य चोपपत्तेः । तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात प्रसिदध्यतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः ।" -न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७७८ । प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४८६ "प्रश्न-यदि ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ नहीं है तब जनमतमे वर्णाश्रमव्यवस्था और ब्राह्मणत्व आदि जातियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तप दान आदि व्यवहार कैसे होगा? उत्तर-जो व्यक्ति यज्ञोपवीत आदि चिह्नोंको धारण करें तथा ब्राह्मणोंके योग्य विशिष्ट क्रियाओंका आचरण करें उनमें ब्राह्मणत्व जातिसे सम्बन्ध रखनेवालो वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदि व्यवहार भलीभाँति किये जा सकते है। अतः आपके द्वारा माना गया नित्य आदि स्वभाववाला ब्राह्मणत्व किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारोंको क्रियानुसार ही मानना युक्तिसंगत है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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