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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १५९ सिद्धषि और प्रभाचन्द्र-श्रीसिद्धर्षिगणि श्वे० आचार्य दुर्गस्वामीके शिष्य थे। इन्होंने ज्येष्ठ शक्ला पंचमी, विक्रम संवत् ९६२ ( १ मई ९०६ ई०) के दिन उपमितिभवप्रपञ्चा कथा को समाप्ति की थी। सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतारपर भी इनकी एक टीका उपलब्ध है । न्यायावतार ( श्लो० १६ ) में पक्षप्रयोगके समर्थनके प्रसंगमें लिखा है कि-"जिस तरह लक्ष्य निर्देशके विना अपनी धनुर्विद्याका प्रदर्शन करनेवाले धनुर्धारीके गुण-दोषोंका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता, गुण भी दोषरूपसे तथा दोष भी गुणरूपसे प्रतिभासित हो सकते हैं, उसी तरह पक्षका प्रयोग किए बिना साधनवादीके साधन सम्बन्धी गुण-दोष भी विपरीत रूपमें प्रतिभासित हो सकते हैं, प्राश्निक तथा प्रतिवादी आदिको उनका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता।" न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४३७ ) के 'प्रक्षप्रयोगविचार' प्रकरणमें भी पक्षप्रयोगके समर्थनमें धनुर्धारीका दृष्टान्त दिया गया है। उसकी शब्दरचना तथा भावव्यञ्जनामें न्यायावतारके मलश्लोकके साथ ही साथ सिद्धर्षिकृत व्याख्याका भी पर्याप्त शब्दसादृश्य पाया जाता है। अवतरणोंके लिए देखो-न्यायकुमदचन्द्र, पृ० ४३७, टि० १। अभयदेव और प्रभाचन्द्र-चन्द्रगच्छमें प्रद्युम्नसूरि बड़े ख्यात आचार्य थे। अभयदेवसूरि इन्हों प्रद्युम्नसूरिके शिष्य थे । न्यायवनसिंह और तर्कपञ्चानन इनके विरुद थे। सन्मतितर्ककी गुजराती प्रस्तावना (पृ० ८३ ) में श्रीमान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने इनका समय विक्रमकी दशवीं सदीका उत्तराध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है। उत्तराध्ययनकी पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरिने उत्तराध्ययनटीकाकी प्रशस्तिमें एक अभयदेवको प्रमाणविद्याका गुरु लिखा है । पं० सुखलालजीने शान्तिसूरिके गुरुरूपमें इन्हीं अभयदेवसूरिकी संभावना की है। प्रभावकचरित्रके उल्लेखानुसार शान्तिसूरिका स्वर्गवास वि० सं० १०९६में हुआ था । इन्हीं शान्तिसूरिने धनपालकविकी तिलकमञ्जरी आख्यायिकाका संशोधन किया था, और उसपर एक टिप्पण लिखा था । धनपाल कवि मुञ्ज तथा भोज दोनोंकी राजसभाओं में सम्मानित हए थे। इन सब घटनाओंको मद्देनजर रखते हुए अभयदेवसूरिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके अन्तिम भाग तक मान लेने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अभयदेवसूरिकी प्रामाणिकप्रकाण्डताका जीवन्त रूप उनकी सन्मतिटीकामें पद-पदपर मिलता है। इस सुविस्तृत टीकाको 'वादमहार्णव' के नामसे भी प्रसिद्धि रही है। प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्रकी अपेक्षा प्रमेयकमलमार्तण्डका अकल्पित सादृश्य इस टीकामें पाया जाता है। अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकामें स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहारका समर्थन किया है। इसमें दी गई दलीलोंमें तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा किए गए उक्त वादोंके खण्डनकी युक्तियों में परस्पर कोई पूर्वोत्तरपक्षता नहीं देखी जाती। अभयदेव, शान्तिसूरि और प्रभाचन्द्र करीब-करीब समकालीन और समदेशीय थे । इसलिए यह अधिक संभव था कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति जैसे साम्प्रदायिक प्रकरणोंमें एक दूसरेका खंडन करते । पर हम इनके ग्रन्थोंमें परस्पर खंडन नहीं देखते । इसका कारण मेरी समझमें तो यही आता है कि उस समय दिगम्बर आचार्य यापनीयों के साथ ही इस विषयकी चर्चा करते होंगे। यही कारण है कि जब प्रभाचन्द्रने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति प्रकरणोंका ही शब्दशः खंडन किया है तब श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और शान्तिसूरिने शाकटायनकी दलीलोंके आधारसे ही अपने ग्रंथोंके उक्त प्रकरण पुष्ट किए है। वादिदेवसूरिने अवश्य ही प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों के उक्त प्रकरणोंको पूर्वपक्षमें प्रभाचन्द्रका नाम लेकर उपस्थित किया है। सन्मतितके सम्पादक श्रीमान् पं० सुखलालजी और बेचरदासजीने सन्मतितर्क प्रथम भाग (पृ० १३) की गुजराती प्रस्तावनामें लिखा है कि-'जी के आ टीकामाँ सैकड़ों दार्शनिकग्रन्थों नु दोहन जणाय छे, १. गुजराती सन्मतितर्क, पृ० ८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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