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________________ १३२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ नगरमें ले गया था । अवन्तिवर्मा चाँदीके सिक्कोंपर "विजितावनिरवनिपतिः श्री अवन्तिवर्मा दिवं जयति" लिखा रहता है तथा संवत् २५० पढ़ा गया है ।" यह संवत् संभवतः गुप्त-सवर है । डॉ० फ्लीट्के मतानुसार गुप्त संवत् ई० सन् ३२० की २६ फरवरीको प्रारम्भ होता है । अतः ५७० ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना इतिहाससिद्ध है । इस समय अवन्तिवर्मा राज्य कर रहे होंगे। तथा ५७० ई० के आमपास ही वे पुरन्दरगुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे । ये अवन्तिवर्मा मोखरीवशीय राजा थे। शैव होनेके कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ लाना भी इनका ठीक ही था । इनके समय सम्बन्धमें दूसरा प्रमाण यह है कि -- वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनकी छोटी बहिन राज्यश्री, अवन्तिवर्मा के पुत्र ग्रहवर्माको विवाही गई थी । हर्षका जन्म ई० ५९० में हुआ था | राज्यश्री उससे १ या २ वर्ष छोटी थी । ग्रहवर्मा हर्षसे ५-६ वर्ष बड़ा जरूर होगा । अतः उसका जन्म ५८४ ई० के करीब मानना चाहिए । इसका राज्यकाल ई० ६०० से ६०६ तक रहा है । अवन्तिवर्माका यह इकलौता लड़का था । अतः मालूम होता है कि ई० ५८४ में अर्थात् अवन्तिवर्माकी ढलती अवस्थामें यह पैदा हुआ होगा । अस्तु; यहाँ तो इतना है कि ५७० ई० के आसपास ही अवन्तिवर्मा पुरन्दरको अपने यहाँ ले गए थे । यद्यपि संन्यासियों में शिष्य-परम्पराके लिए प्रत्येक पोढ़ीका समय २५ वर्ष मानना आवश्यक नहीं है; क्योंकि कभी-कभी २० वर्ष में ही शिष्य-प्रशिष्योंकी परम्परा चल जाती है । फिर भी यदि प्रत्येक पीढीका समय २५ वर्ष ही मान लिया जाय तो पुरन्दरसे तीन पीढीके बाद हुए व्योमशिवका समय सन् ६७० के आसपास सिद्ध होता है । दार्शनिक ग्रन्थों के आधारसे समय — व्योमशिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका ( पृ० ३९२ ) श्रीहर्षका एक महत्त्वपूर्ण ढंग से उल्लेख करते हैं । यथा "अत एव मदीयं शरी रमित्यादिप्रत्ययेष्वात्मानुरागसद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेदकत्वम् । हर्ष देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षस्येव उभयत्रापि बाधकसद्भावात्, यत्र ह्यनुरागसद्भावेऽपि विशेषणत्वे बाधकमस्ति तत्रावच्छेदकत्वमेव कल्प्यते इति । अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम् । आत्मनि कर्त्तृत्वकरणत्वयोरसम्भव इति बाधकम् ।” मालूम होता है फिर भी 'अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानइससे साफ मालूम होता है कि श्रीहर्ष ( 606-647 A. यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि व्योमशिव श्रीहर्ष के यद्यपि इस सन्दर्भका पाठ कुछ छूटा हुआ त्वम्' यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। D. राज्य ) व्योमशिव के समय में विद्यमान थे । बहुत बाद होकर भी ऐसा उल्लेख कर सकते हैं; परन्तु जब शिलालेखसे उनका समय ई० सन् ६७० के आसपास है तथा श्रीहर्षकी विद्यमानताका वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते तब उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता । व्योमवतीका अन्तःपरीक्षण - व्योमवती ( पृ० ३०६, ३०७,६८० ) में धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक ( २-११,१२ तथा १-६८, ७२ ) से कारिकाएँ उद्धत की गई हैं। इसी तरह व्योमवती ( पृ० ६१७ ) में तुन्दु प्रथमपरिच्छेद के "डिण्डिकरागं परित्यज्य अक्षिणो निमील्य" इस वाक्यका प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रमाणवार्तिककी और भी बहुत-सी कारिकाएँ उद्धृत देखी जाती हैं । १. देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वि० भाग, पृ० ३७५ । २. देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वितीय भाग, पृ० २२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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