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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १२१ दर्शन, सुख, वीर्य आदि हैं । साधारण गुण वस्तुत्व प्रमेयत्व सत्त्व आदि । पुद्गलके रूप रस गन्ध स्पर्श आदि असाधारण गुण हैं । धर्मद्रव्यका गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्यका स्थितिहेतुत्व, आकाशका अवगाहननिमित्तत्व और कालका वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण हैं । साधारण गुण वस्तुत्व सत्त्व अभिधेयत्व प्रमेयत्व आदि । जीवमें ज्ञानादि सत्ता और प्रतीति निरपेक्ष है, स्वाभाविक है । पर छोटा बड़ा, पितृत्व, पुत्रत्व, गुरुत्व, शिष्यत्व आदि धर्म सापेक्ष हैं । यद्यपि इनकी योग्यता जीव में है, पर ज्ञानादिके समान ये स्वरसतः गुण नहीं हैं । इसी तरह पुद्गलमें रूप रस गन्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक परनिरपेक्ष गुण हैं परन्तु छोटा बड़ा, एक दो तीन आदि संख्या, संकेतके अनुसार होनेवाली वाच्यता आदि ऐसे धर्म हैं जिनकी अभिव्यक्ति व्यवहारार्थं होती है | गुण परनिरपेक्ष स्वतः प्रतीत होते हैं तथा धर्म परापेक्ष होकर । वस्तु में योग्यता दोनोंकी है। सामान्यविवक्षासे सभी वस्तुके स्वभाव माने जाते हैं । सप्तभङ्गीमें धर्मोकी कल्पना वक्ताके प्रश्नोंके अनुसार की जाती है । एक धर्मको केन्द्र में माननेपर उसका प्रतिपक्षी धर्म आ जाता है । फिर दोनों रूपको एकसाथ शब्दसे कहने का प्रयत्न सम्भव नहीं है, अतः वस्तुका निजरूप अवक्तव्य उपस्थित हो जाता है । इस तरह सत् असत् और अवक्तव्य इन तीन धर्मोको लेकर अधिकसे अधिक सात ही प्रश्न हो सकते हैं । अतः सप्तभङ्गीका निरूपण अधिक-से-अधिक सात प्रश्नोंकी सम्भावनाका उत्तर है । प्रश्न मात हो सकते हैं इसका कारण सात प्रकार की जिज्ञासाका होना है । जिज्ञासाका सात प्रकारका होना सात प्रकारके संशयोंके अधीन है । तथा संशय सात इसलिए होते हैं कि वस्तुके धर्म ही सात प्रकारके हैं । ६. विशदज्ञान प्रत्यक्ष — इस तरह ज्ञान द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक अर्थको विषय करता है । केवल सामान्यात्मक या विशेषात्मक कोई पदार्थ नहीं है और न केवल द्रव्यात्मक या पर्यायात्मक ही । इसीलिए अकलङ्कदेवने प्रत्यक्षका लक्षण करते समय वार्तिकमें द्रव्य पर्याय सामान्य और विशेष ये चार विशेषण अर्थके दिए हैं। इनकी सार्थकता उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाती है । ज्ञानके लिए उनने लिखा है कि उसे साकार और स्वसंवेदी होना चाहिए । यहाँ तक साकार स्वसंवेदी और द्रव्यपर्याय - सामान्यविशेपार्थवेदी ज्ञानका निरूपण हुआ । ऐसा ज्ञान जब 'अंजसा स्पष्ट' अर्थात् परमार्थतः विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। साधारणतया दर्शनान्तरोंमें तथा लोकव्यवहारमें इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष माना गया है । तथा इन्द्रियके परे रहनेवाले पदार्थका बोध परोक्ष कहा जाता है। पर जैनदर्शनका प्रत्यक्ष और परोक्षका अपना स्वोपज्ञ विचार है । वह इन्द्रिय आदि पर पदार्थोंकी अपेक्षा रखनेवाले ज्ञानको परोक्ष अर्थात् परतन्त्र ज्ञान मानता है, तथा इन्द्रियादि-निरपेक्ष आत्ममात्रोत्थ ज्ञानको प्रत्यक्ष | यह प्रत्यक्षका कारणमूलक विवेचन है । पर स्वरूपमें जो ज्ञान विशद हो वह प्रत्यक्ष कहलाता है । यह विशदता व्यवहारमें अंशतः इन्द्रियजन्य ज्ञानमें भी पाई जाती है, अतः इन्द्रियजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष कहते हैं । यद्यपि आगमों में इन्द्रियजन्य मतिको परोक्ष कहा है और वह आगमिक परिभाषामें उचित भी है पर लोकव्यवहारके निर्वाहार्थं वैशद्यांशका सद्भाव होनेसे उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष भी कहा गया है। वैशद्यका लक्षण अकलङ्कदेवने स्वयं लघीयस्त्रय ( कारिका नं ० ४ ) में यह किया है "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेष प्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् ॥” अर्थात् अनुमान आदिकसे अधिक, नियत देश काल और आकार रूपसे प्रचुरतर विशेषोंके प्रतिभासनको वैशद्य कहते हैं । दूसरे शब्दों में जिस ज्ञानमें अन्य किसी ज्ञानकी सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है । जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान आदि ज्ञानान्तरकी अपेक्षा ४–१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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