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________________ १०४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करनेके लिए । इसका यही तात्पर्य है कि बौद्धादि जिस निर्विकल्पकको प्रमाण मानते हैं जैन उसे दर्शनकोटिमें गिनते हैं और वह प्रमाणकी सीमासे बहिर्भूत है । अस्तु । उपायतत्त्वमें ज्ञान ही आता है । जब ज्ञान वस्तु के पूर्णरूपको जानता है तब प्रमाण कहा जाता है तथा जब देशको जानता है तब नय। प्रमाणका लक्षण साधारणतया 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह सर्व-स्वीकृत है। विवाद यह है कि करण कौन हो? नैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान दोनोंका करण रूपसे निर्देश करते है । परन्तु जैन परम्परामें अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमितिका करण ज्ञानको मानते हैं। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनने प्रमाणके लक्षणमें 'स्वपरावभासक' पदका समावेश किया है। इस पदका तात्पर्य है कि प्रमाणको 'स्व' और 'पर' दोनोंका निश्चय करानेवाला होना चाहिए । यद्यपि अकलंकदेव और माणिक्यनन्दीने प्रमाणके लक्षणमें 'अनधिगतार्थ ग्राही' और 'अपूर्वार्थव्यवसायात्मक' पदोंका निवेश किया है, पर यह सर्वस्वीकृत नहीं हआ । आचार्य हेमचन्द्रने तो 'स्वावभासक' पद भी प्रमाणके लक्षणमें अनावश्यक समझा है। उनका कहना है कि स्वावभासकत्व ज्ञानसामान्यका धर्म है । ज्ञान चाहे प्रमाण हो या अप्रमाण, वह स्वसंवेदी होगा ही। तात्पर्य यह है कि जैन परम्परामें ऐसा स्वसंवेदी ज्ञान प्रमाण होगा जो पर-पदार्थ-निर्णय करनेवाला हो। प्रमाण सकलादेशी होता है, वह एक गुणके द्वारा भी पूरी वस्तुको विषय करता है। नय विकलादेशी होता है, क्योंकि वह जिस धर्मका स्पर्श करता है उसे हो मुख्य भावसे विषय करता है। प्रमाणके भेद-सामान्यतया प्राचीन कालसे जैन परम्परामें प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूपसे स्वीकृत चले आ रहे हैं । आत्ममात्र-सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं तथा जिस ज्ञानमें इन्द्रिय मन प्रकाश आदि परसाधनोंकी अपेक्षा हो वह ज्ञान परोक्ष कहा जाता है । प्रत्यक्ष और परोक्षकी यह परिभाषा जैन परम्पराकी अपनी है । जैन परम्परामें प्रत्येक वस्तु अपने परिणमनमें स्वयं उपादान होती है। जितने परनिमित्तक परिणमन है, सब व्यवहारमूलक हैं। जितने मात्र स्वनिमित्तक परिणमन हैं वे परमार्थ हैं, निश्चयनयके विषय हैं। प्रत्यक्ष और परोक्षके लक्षणमें भी वही स्वाभिमख दृष्टि कार्य कर रही है। और उसके निर्वाहके लिए अक्ष शब्दका अर्थ ( अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा) आत्मा किया गया । प्रत्यक्षके लोकप्रसिद्ध अर्थके निर्वाहके लिए इन्द्रियजन्य ज्ञानको सांव्यवहारिक संज्ञा दी। यद्यपि शास्त्रीय परमार्थ व्याख्याके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होनेसे परोक्ष है किन्तु लोकव्यवहारमें इनको प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्धि होने के कारण इन्हें संव्यवहार प्रत्यक्ष कह दिया जाता है। जैनदष्टिमें उपादानयं विशेष भार दिया गया है, निमित्तसे यद्यपि उपादान-योग्यता विकसित होती है, पर निमित्ताधीन परिणमन उत्कृष्ट या शुद्ध नहीं समझे जाते। इसीलिए प्रत्यक्ष-जैसे उत्कृष्ट ज्ञानमें इन्द्रिय और मन-जैसे निकटतम साधनोंकी अपेक्षा भी स्वीकार नहीं की गई। प्रत्यक्ष व्यवहारका कारण भी आत्ममात्रसापेक्षता ही निरूपितकी गई है और परोक्ष व्यवहारके लिए इन्द्रिय मन आदि परपदार्थों की अपेक्षा रखना। यह तो जैनदृष्टिका अपना आध्यात्मिक निरूपण है। उस प्रत्यक्ष ज्ञानकी परिभाषा करते हए अकलंकदेवने कहा है कि "प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टः साकारमञ्जसा। द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥" अर्थात-जो ज्ञान परमार्थतः स्पष्ट हो, साकार हो, द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक अर्थको विषय करनेवाला हो और आत्मवेदी हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इस लक्षणमें अकलंकदेवने निम्नलिखित मुद्दे विचारकोटिके लायक रखे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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