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________________ १०२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ इस तरह वृत्ति के यावत् गद्यभागकी तो व्याख्या की ही नहीं गई, सम्भवतः कुछ पद्य भी छट गए हैं । जैसा कि सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १२० A ) के निश्नलिखित उल्लेखोंसे स्पष्ट है "तदुक्तं न्यायविनिश्चये-न चैतद् बहिरेव । किं तर्हि ? बहिर्बहिरिव प्रतिभासते। कुत एतत् ? भ्रान्तेः। तदन्यत्र समानम् । इति ।" सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० ६९ A ) में ही न्यायविनिश्चयके नामसे 'सुखमाल्हादनाकारं' श्लोक उद्धृत है "कथमन्यथा न्यायविनिश्चये सहभुवो गुणा इत्यस्य सुखमालादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्यात् यूनः कान्तासमागमे ।। इति निदर्शनं स्यात् ।' यह श्लोक सिद्धि विनिश्चयटीकाके उल्लेखानुसार न्यायविनिश्चय स्ववृत्तिका होना चाहिए। क्योंकि वह 'गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः' ( श्लो० १११ ) के गुण शब्दकी वृत्तिमें उदाहरणरूपसे दिया गया यह भी सम्भव है कि अकलङ्कदेवने स्वयं इस श्लोकको वत्तिमें उदधत किया हो क्योंकि वादिराज इसे स्याद्वादमहार्णव ग्रन्थका बताते हैं। यह भी चित्तको लगता है कि न्यायविनिश्चयकी उक्त वृत्ति ही सम्भवतः स्याद्वादमहार्णवके नामसे प्रख्यात रही हो । जो हो, पर अभी यह सब साधक प्रमाणोंका अभाव होनेसे सम्भावनाकोटिमें ही है । न्यायविनिश्चयविवरणकी रचना अत्यन्त प्रसन्न तथा मौलिक है। तत्तत पूर्वपक्षोंको समद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये गये हैं । जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है वादिराजसूरिके ऊपर किसी भी दार्शनिक आचार्यका सीधा प्रभाव नहीं है। वे हरएक विषयको स्वयं आत्मसात करके ही व्यवस्थित ढंगसे युक्तियोंका जाल बिछाते हैं जिससे प्रतिवादीको निकलनेका अवसर ही नहीं मिल पाता । सांख्यके पूर्वपक्षमें (पृ० २३१) योगभाष्यका उल्लेख 'विन्ध्यवासिनी भाष्यम्' शब्दसे किया है। सांख्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धसे ( पृ० २३४) भोगकी परिभाषा उद्धृत की है। बौद्धमतसमीक्षामें धर्मकीर्तिके प्रमाण वार्तिक और प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारकी इतनी गहरी और विस्तत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आई। वार्तिकालङ्कारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। धर्मोत्तर, शान्तभद्र, अर्चट आदि प्रमुख बौद्ध ग्रन्थकार इनकी तीखी आलोचनासे नहीं छूटे हैं। मीमांसादर्शनकी समालोचनामें शबर, उम्बेक, प्रभाकर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन है। इसी तरह न्यायवैशेषिक मतमें व्योमशिव, आत्रेय, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन आचार्योंके मत उनके ग्रन्थोंसे उद्धृत करके आलोचित हुए हैं । उपनिषदोंका 'वेदमस्तक' शब्दसे उल्लेख किया गया है। इस तरह जितना परपक्षसमीक्षणका भाग है वह उन-उन मतोंके प्राचीनतम ग्रन्थोंसे लेकर ही पूर्वपक्ष में स्थापित करके आलोचित किया गया है। स्वपक्षसंस्थापनमें समन्तभद्रादि आचार्यों के प्रमाणवाक्योंसे पक्षका समर्थन परिपुष्ट रीतिसे किया है। जब वादिराज कारिकाओंका व्याख्यान करते हैं तो उनको अपूर्व वैयाकरणचुञ्चता चित्तको विस्मित कर देती है। किसी-किसी कारिकाके पाँच-पाँच अर्थ तक इन्होंने किए हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । काव्यछटा और साहित्यसर्जकता तो इनकी पद-पदपर अपनी आभासे न्यायभारतीको समुज्ज्वल बनाती हुई सहृदयोंके हृदयको आह्वादित करती है। सारे विवरणमें करीब २००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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