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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९९ विषयपरिचय प्रन्थका बाह्यस्वरूप नाम-आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने जैन न्यायका अवतार करनेवाला न्यायावतार ग्रन्थ लिखा है। न्यायावतारमें प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुत इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है। अकलंकदेवने प्रकृत ग्रन्थ न्यायविनिश्चयमें भी प्रत्यक्ष , अनुमान और प्रवचन ये तीन ही प्रस्ताव रखे हैं। धर्मकीर्ति के प्रमाणवातिकमें प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमान इन तीनका विवेचन है। परार्थानुमान और शब्द प्रमाणकी प्रक्रिया लगभग एकसी है । धर्मकीतिका एक प्रमाण विनिश्चय ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ गद्यपद्यमय रहा है। वादिदेवसूरिने स्याद्वाद रत्नाकर ( पृ० २३ ) में 'धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्चयस्य...... ' यह उल्लेख करके लिखा है कि न्यायविनिश्चयके तीन परिच्छेदों में क्रमशः प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमानका वर्णन है। यदि धर्मकीर्तिका प्रमाणविनिश्चयके अतिरिक्त न्यायविनिश्चय नामका भी कोई ग्रन्थ रहा है तो अकलंकदेवने नामकी पसन्दगीमें इसका उपयोग कर लिया होगा। अभी तकके अनुसन्धानसे धर्मकीर्ति के न्यायविनिश्चय ग्रन्थका तो पता नहीं चला है । हो सकता है कि वादिदेवसूरिने प्रमाण विनिश्चयका ही 'न्यायविनिश्चयके' नामसे उल्लेख कर दिया हो क्योंकि उसके प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और पर:र्थानुमान परिच्छेद प्रमाणके ही भेदोंके विवेचक हैं । अतः प्रमाणवातिककी तरह प्रमाणविनिश्चय नामकी ही अधिक सम्भावना है। अकलंकदेवने न्यायको कलिदोषसे मलिन हुआ देखकर उसके विनिश्चयार्थ न्यायावतार और प्रमाणविनिश्चयके आद्यन्त पदोंसे ग्रन्थका न्यायविनिश्चय नामकरण किया होगा। न्यायविनिश्चयकी अकलंककर्तृकता-अकलंकदेव अपने ग्रन्थों में कहीं-न-कहीं 'अकलंक' नामका प्रयोग अवश्य करते हैं । यह प्रयोग कहीं जिनेन्द्र के रूपमें, कहीं ग्रन्थके विशेषणके रूपमें और कहीं लक्षणघटक विशेषणके रूप में दृष्टिगोचर होता है। न्यायविनिश्चय ग्रन्थ ( कारिका नं० २८६ ) में "विस्रब्धैरकलंकरत्ननिचयन्यायो विनिश्चीयते” इस कारिकांशके द्वारा अकलंक और न्यायविनिश्चय दोनोंकी हृदयहारिणी रीतिसे स्पष्ट सूचना दे दी है । वादिराजसूरिके पुष्पिका वाक्य, अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चय टीका (प० २०८ B ) का उल्लेख, विद्यानन्दिका आप्तपरीक्षा ( पृ० ४९) गत 'तदुक्तमकलंकदेवः' कहकर उद्धृत की गई न्यायविनिश्चयकी 'इन्द्रजालादिषु' आदि कारिका, न्यायदीपिकाकार धर्मभूषुणयति द्वारा 'तदुक्तं भगवद्भिरकलंकदेवैः न्याय विनिश्चये' लिखकर 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहः' इस तीसरी कारिकाका उद्धृत किया जाना इस ग्रन्थकी अकलंकर्तृककताके प्रबल पोषक प्रमाण है। ग्रन्थगतप्रमेय-न्यायविनिश्चयमें तीन प्रस्ताव है-१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. प्रवचन । इन प्रस्तावोंमें स्थूल रूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है-उनका परिचय इस स्मृतिग्रन्थके खण्ड चारमें 'अकलंक ग्रन्थत्रय और उसके कर्ता' लेखमें दिया गया है। प्रस्तुत न्यायविनिश्चयमें तीन प्रकारके श्लोकोंका संग्रह है-१-वार्तिक २-अन्तरश्लोक ३-संग्रहश्लोक। इस भागमें 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः' आदि तीसरा श्लोक मलवार्तिक है, क्योंकि आगे इसी श्लोकगत पदोंका विस्तृत विवेचन है । वृत्तिके मध्यमें यत्र-तत्र आनेवाले अन्तरश्लोक है। तथा वृत्तिके द्वारा प्रदर्शित मलवातिकके अर्थका संग्रह करानेवाले संग्रहश्लोक है। वादिराजसूरिने (पृ० २२९) स्वयं "निराकारेत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्तित्वात्" विमुखेत्या दि वार्तिकव्याख्यानवत्तिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी इलोकाः ।...."संग्रहश्लोकास्तु वृत्त्युपदर्शितस्य वार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः ।" इन शब्दोंमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोककी विशेषता बताई है। वादिराजसूरिकी व्याख्या गद्यभागपर तो नहीं ही है। पद्योंमें भी सम्भवतः कुछ पद्य अव्याख्यात छूट गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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