SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है कि उस ज्ञान या उस विचारका कोई मूल्य नहीं जो जीवन में न उतरे। जिसकी सुवाससे जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्कके व्यायामसे अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते। जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका आद्यसूत्र है-“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (तत्त्वार्थसूत्र १।१ ) अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी आत्मपरिणति मोक्षका मार्ग है। यहाँ मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उस चारित्रके परिपोषक हैं। बौद्ध परम्पराका अष्टांग मार्ग भी चारित्रका ही विस्तार है। तात्पर्य यह कि श्रमणधारामें ज्ञानकी अपेक्षा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है और प्रत्येक विचार और ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें सामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है। श्रमण सन्तोंने तप और साधनाके द्वारा वीतरागता प्राप्त की और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसाको उत्कृष्ट ज्योतिको विश्वमें प्रचारित करने के लिए विश्वतत्त्वोंका साक्षात्कार किया। इनका साध्य विचार नहीं आचार था, ज्ञान नहीं चारित्र्य था, वाग्विलास या शास्त्रार्थ नहीं, जीवन-शुद्धि और संवाद था। अहिंसाका अन्तिम अर्थ है-जीवमात्रमें (चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या शूद्र, गोरा हो या काला, एतद्देशीय हो या विदेशी ) देश, काल, शरीरकारके आवरणोंसे परे होकर समत्व-दर्शन । प्रत्येक जीव स्वरूपसे चैतन्य शक्तिका अखण्ड शाश्वत आधार है । वह कर्म या वासनाओंके कारण वृक्ष, कीड़ा-मकोड़ा, पशु और मनुष्य आदि शरीरोंको धारण करता है, पर अखण्ड चैतन्यका एक भी अंश उसका नष्ट नहीं होता । वह वासना या रागद्वेषादिके द्वारा विकृत अवश्य हो जाता है। मनुष्य अपने देश, काल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी शरीरको धारण किए हो, अपनी वृत्ति या कर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी श्रेणीमें उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देशमें उत्पन्न हुआ हो, किसी भी सन्तका उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमित्तोंसे ऊँच या नीच नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होनेके कारण ही वह धर्मका ठेकेदार नहीं बन सकता । मानवमात्रके मूलतः समान अधिकार हैं, इतना ही नहीं, किन्तु पशु-पक्षी, कीड़ेमकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियों के भी । अमुक प्रकारकी आजीविका या व्यापारके कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिकारसे वंचित नहीं हो सकता । यह मानवसमत्त्व-भावना, प्राणिमात्रमें समता और उत्कृष्ट सत्त्वमैत्री अहिंसाके विकसित रूप हैं। श्रमणसन्तोंने यही कहा है कि-एक मनुष्य किसी भूखण्डपर या अन्य भौतिक साधनोंपर अधिकार कर लेनेके कारण जगत्में महान् बनकर दूसरोंके निर्दलनका जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होनेके कारण दूसरोंका शासक या धर्मका ठेकेदार नहीं हो सकता। भौतिक साधनोंकी प्रतिष्ठा बाह्यमें कदाचित् हो भी पर धर्मक्षेत्रमें प्राणिमात्रको एक ही भूमिपर बैठना होगा । हर एक प्राणोको धर्मको शीतल छायामें समानभावसे सन्तोषकी साँस लेने का सुअवसर है । आत्मसमत्त्व, वीतरागत्त्व या अहिंसाके विकाससे ही कोई महान् हो सकता है न कि जगत में विषमता फैलानेवाले हिंसक परिग्रहके संग्रहसे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस प्रकार जाति, वर्ण, रङ्ग, देश, आकार, परिग्रहसंग्रह आदि विषमता और संघर्षके कारणोंसे परे होकर प्राणिमात्रको समत्त्व, अहिंसा और वीतरागताका पावन सन्देश इन श्रमणसन्तोंने उस समय दिया जब यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक वर्गविशेषकी जीविकाके साधन बने हुए थे, कुछ गाय, सोना और स्त्रियोंको दक्षिणासे स्वर्गके टिकिट प्राप्त हो जाते थे, धर्मके नामपर गोमेध, अजामेध क्वचित् नरमेध तकका खुला बाजार था, जातिगत उच्चत्त्व-नीचत्त्वका विष समाज-शरीरको दग्ध कर रहा था, अनेक प्रकारसे सत्ताको हथियानेके षड्यन्त्र चाल थे । उस बर्बर यग में मानवसमत्त्व और प्राणिमैत्रीका उदारतम सन्देश इन युगधर्मी सन्तोंने नास्तिकताका मिथ्या लांछन सहते हए भी दिया और भ्रान्त जनताको सच्ची समाजरचनाका मलमन्त्र बताया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy