SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : ९१ ४-क्या लोक दोनों रूप नहीं है हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो अनुभय है ? लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक साथ समग्र भावसे कह सके। उसमें शाश्वत, अशाश्वतके सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान हैं अतः समग्र भावसे वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है, अनिर्वचनीय है। __ संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक युक्तिसंगत समाधान करते हैं। इसपर भी राहुलजी और धर्मानन्द कोसाम्बी आदि यह कहनेका साहस करते हैं कि 'संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर संजयके बादको ही जैनियोंने अपना लिया। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि भारतमें रही परतन्त्रताको ही परतन्त्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरतन्त्रता (स्वतन्त्रता ) रूपसे अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रता भी 'प र तन्त्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसाको ही बुद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होनेपर अहिंसारूपसे अपना लिया है, क्योंकि अहिंसामें भी "हिं सा' ये दो अक्षर है ही । यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि-आप ( पृ० ४८४ ) अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ निग्गंठ नाथपुत्त ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते हैं, तथा (पृ० ४९१ ) संजयको अनेकान्तवादी । क्या इसे धर्मकीतिके शब्दोंमें 'धिग व्यापकं तमः' नहीं कहा जा सकता? ___ 'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय अनिश्चय या संभावनाका भ्रम होता है। पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसङ्गकी, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं होता । एकाधिक भेद या विकल्पकी सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात्' पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवाद सुत्तके निम्नलिखित अवतरणसे ज्ञात होता है-“कतमा च राहुल तेजोधातु ? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा।" अर्थात् तेजो धातु स्यात् आध्यात्मिक है, स्यात् बाह्य है । यहाँ सिया ( स्यात् ) शब्दका प्रयोग तेजो धातुके निश्चित भेदोंकी सूचना देता है, न कि उन भेदोंका संशय अनिश्चय या सम्भावना बताता है। आध्यात्मिक भेदके साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात शब्द इस बातका द्योतन करता है कि तेजो धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य भी है । इसी तरह 'स्यादस्ति' में अस्तिके साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि 'अस्ति से भिन्न धर्म भी वस्तुमें है केवल 'अस्ति' धर्मरूप हो वस्तु नहीं है । इस तरह 'स्यात्' शब्द न 'शायद' का न अनिश्चय' का और न सम्भावनाका सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्मके सिवाय अन्य अशेष धर्मोंकी सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तुको निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे। सप्तभंगो-वस्तु मलतः अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न विवक्षाओंसे अनन्त धर्म हैं। प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दृष्टिभेदसे वस्तुमें सम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है ही अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादासे । जिस प्रकार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा 'अस्तित्व' धर्म है, उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थोंका 'नास्तित्व' भी घटमें है। यदि घटभिन्न पदार्थोका नास्तित्व घटमें न पाया जाय तो घट और पदार्थ मिलकर एक हो जायँगे । अतः घट स्यादस्ति और स्यान्नास्ति रूप है। इसी तरह वस्तमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy