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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ८९ हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपसी संयोगवियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत् ( 'गच्छतीति जगत्' अर्थात् नाना रूपोंका प्राप्त होना) बनता रहता है। तात्पर्य यह कि-विश्वमें जितने सत् हैं उनमेंसे न तो एक कम हो सकता है और न एक बढ़ सकता है। अनन्त जड़ परमाणु, अनन्त आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश, और असंख्य कालाणु इतने सत् है। इनमें धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूपमें सदा विद्यमान रहते है, उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये कूटस्थ नित्य है, किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है वह सदश स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुद्गल ये दो द्रव्य एक-दसरेको प्रभावित करते हैं । जिस समय आत्मा शद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। जब तक आत्मा अशुद्ध है तब तक ही इसके परिणमनपर सजातीय जीवान्तरका और विजातीय पुद्गलका प्रभाव आनेसे विलक्षणता आती है। इसकी नानारूपता प्रत्येकको स्वानुभवसिद्ध है । जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा सजातीयसे भी प्रभावित होता है और विजातीय चेतनसे भी। इसी पुद्गल द्रव्यका चमत्कार आज विज्ञानके द्वारा हम सबके सामने प्रस्तुत है। इसीके हीनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं । विद्युत शब्द आदि इसीके रूपान्तर है, इसीकी शक्तियाँ हैं। जीवकी अशद्ध दशा इसीके संपर्कसे होती है । अनादिसे जीव और पुद्गलका ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेनेपर भी जीव इसके संयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें विभाव परिणमन-राग द्वेष मोह अज्ञानरूप दशाएँ होती रहती हैं। जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना द्वारा इतना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उसपर बाह्य जगत्का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्यमें स्थिर हो जाता है। यह मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्यमें लीन रहता है । फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती । अन्ततः पुद्गल परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशामें दूसरे संयोगके आधारसे नाना आकृतियां और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं। इस जगत्-व्यवस्थामें किसी एक ईश्वर-जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है, यह तो अपने-अपने संयोग-वियोगोंसे परिणमनशील है। प्रत्येक पदार्थका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र चाल है। यदि कोई दसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको आत्मसात् किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता चला जायगा । हाइड्रोजनका एक अणु अपनी गतिसे प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूपमें बदल रहा है। यदि आक्सीजनका अणु उसमें आ जुट. तो दोनोंका जलरूप परिणमन हो जायगा । वे एक 'बिन्दु' रूपसे सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिकके विश्लेषणप्रयोगका निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा-जुदा भी हो सकते हैं। यदि अग्निका संयोग मिल गया भाफ बन जायँगे । यदि साँपके मुखका संयोग मिला विषबिन्दु हो जायेंगे । तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया पद्गल और अशद्ध जोवके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है। परिणमनचक्रपर प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है । वह अपनो अनन्त योग्यताओं के अनुसार अनन्त परिणमनोंको क्रम: धारण करता है । समस्त 'सत्' के समुदायका नाम लोक या विश्व है। इस दृष्टिसे अब आप लोकके शाश्वत और अशाश्वतवाले प्रश्नको विचारिए १-क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है। द्रव्योंकी संख्याको दृष्टिसे, अर्थात् जितने सत् इसमें हैं उनमेंका एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उनमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती है । ४-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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