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________________ ८६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ चाहते हैं जो एक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है। परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्ट रूपसे डंकेकी चोट यह कह रहा है कि-घड़ा ‘स्यादस्ति' अर्थात् अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है। घड़ा स्वसे भिन्न यावत् पर पदार्थोंकी दृष्टिसे नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मोंका अपने-अपने दृष्टिकोणसे घड़ा अविरोधी आधार है तब घड़ेको हम उभयदृष्टिसे अस्ति-नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते है। पर शब्दमें यह सामर्थ्य नहीं है कि घटके पूर्णरूपको-जिसमें 'अस्ति-नास्ति' जैसे एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेकों युगल-धर्म लहरा रहे हैं-कह सके अतः समग्रभावसे घड़ा अवक्तव्य है। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयकी घोषणा करता है तब इसे सम्भावनावादमें कैसे रखा जा सकता है ? स्यात् शब्दके साथ ही एवकार भी लगा रहता है जो निर्दिष्ट धर्मका अवधारण सूचित करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिकी सूचना देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु इसी धर्मरूप है। यह स्याद्वाद कल्पित धर्मोंतक व्यवहारके लिए भले ही पहुँच जाय, पर वस्तुव्यवस्थाके लिए वस्तुकी सीमाको नहीं लाँघता । अतः न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद और न संभावनावाद ही, किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है। इसी तरह डॉ० देवराजजी का पूर्वी और पश्चिमी दर्शन ( पृष्ठ ६५ ) में किया गया स्यात् शब्दका 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है । कदाचित् शब्द कालापेक्ष है। इसका सीधा अर्थ है किसी समय । और प्रचलित अर्थमें यह संशयकी ओर ही झुकाता है। स्यात्का प्राचीन अर्थ है कथञ्चित्-अर्थात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे। इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ है। महापंडित राहुल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादको उत्पत्तिको संजय वेलठ्ठिपुत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है । राहुलजीने 'दर्शन दिग्दर्शन ( पृ० ४९६ )' में लिखा है कि"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्याद्वाद है। जो मालम होता है संजय वेलठ्ठिपुत्तके चार अंगवाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता) के बारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है १-है ? नहीं कह सकता। २-नहीं है ? नहीं कह सकता। ३-है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता। ४-न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिये जैनोंके सात प्रकारके स्याद्वादसे १-है ? हो सकता है ( स्यादस्ति) २-नहीं है ? नहीं भी हो सकता है ( स्यात्नास्ति) ३-है भी और नहीं भी? है भी और नहीं भी हो सकता ( स्यादस्ति च नास्ति च ) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं ( = वक्तव्य है)? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं ४-स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता ( = वक्तव्य) है ? नहीं, स्याद् अ वक्तव्य है। ५-'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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