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________________ ८४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि 'घड़ा जब 'अस्ति' है तो 'नास्ति' कैसे हो सकता है, घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है' पर विचार तो करो घड़ा घड़ा ही है, कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोड़ा नहीं, तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे अस्ति है, घटभिन्न पररूपोंसे नास्ति है । इस घड़े में अनन्त पररूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो दुनियामें कोई शक्ति घड़को कपड़ा आदि बननेसे नहीं रोक सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घड़ेको घड़े रूपमें कायम रखनेका हेतु है । इसी 'नास्ति' धर्मकी सूचना 'अस्ति' के प्रयोगके समय 'स्यात्' शब्द दे देता है । इसी तरह घड़ा एक है। पर वही घड़ा रूप रस गन्ध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त शक्तियोंकी दृष्टिसे अनेकरूप में दिखाई देता है या नहीं? यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्या कष्ट होता है कि घड़ा द्रव्य एक है, पर अपने गुण धर्म शक्ति आदिकी दृष्टिसे अनेक है। कृपाकर सोचिए कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोंका प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरे अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब हमें उसके स्वरूपको विकृत रूपमें देखनेकी दुर्दष्टि तो नहीं करनी चाहिए । जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्ण रूप-दर्शनकी याद दिलाता है उसे ही हम ‘विरोध, संशय-जैसी गालियोंसे दुरदुराते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें आ जाता है कि 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्।' अर्थात्-यदि यह अनेक धर्मरूपता वस्तुको स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है, तो हम बीच में काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकार है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है। वस्तुमें कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टिमें है । और इस दृष्टिविरोधकी अमृतौषधि 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको कटु तो जरूर मालम होती है, पर इसके बिना यह दृष्टि विषमज्वर उतर भी नहीं सकता। प्रो० बलदेव उपाध्यायने भारतीय दर्शन ( पृ० १५५ ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है कि-"स्यात् (शायद, सम्भवतः ) शब्द अस् धातुके विधिलिके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है । घड़ेके विषयमें हमारा परामर्श 'स्यादस्ति = संभवतः यह विद्यमान है' इसी रूपमें होना चाहिए।" यहाँ 'स्यात्' शब्दको शायदका पर्यायवाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते । इसीलिए वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी आगे 'संभवतः' शब्दका समर्थन करते हैं। वैदिक आचार्योंमें शंकराचार्य ने शांकरभाष्यमें स्याद्वादको संशयरूप लिखा है, इसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानोंके माथेमें पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारवश स्यातका अर्थ 'शायद' लिख ही जाते हैं। जब यह स्पष्ट रूपसे अवधारण करके कहा जाता है कि-'घटः स्यादस्ति' अर्थात् घड़ा अपने स्वरूपसे है ही । घटः स्यान्नास्ति-घट स्वभिन्न स्वरूपसे नहीं ही है तब संशयको स्थान कहाँ है ? स्यात् शब्दसे जिस धर्मका प्रतिपादन किया जा रहा है उससे भिन्न अन्य धर्मोके सद्भावको सूचित करता है । वह प्रति समय श्रोताको यह सूचना देना चाहता है कि वक्ताके शब्दोंसे वस्तुके जिस स्वरूपका निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उनमें अन्य धर्म भी विद्यमान हैं। जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म निश्चित नहीं होता। जैनके अनेकान्तमें अनन्त धर्म निश्चित है, उनके दृष्टिकोण निश्चित है तब संशय और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् भी चलाए जाते हैं यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है। इसी संस्कारवश प्रो० बलदेवजी स्यात्के पर्यायवाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर ( पृ० १७३ ) जैनदर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी वकालत इन शब्दोंमें करते हैं कि-"यह निश्चित ही है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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