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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ७५ विकासशील आत्माका आकार बताया। विचारा जिज्ञासु अनेक पगडण्डियोंवाले इस शतराहेपर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हुआ या तो दर्शन शब्दके अर्थपर ही शंका करता है या फिर दर्शनकी पूर्णता में ही अविश्वास करनेको उसका मन होता है । प्रत्येक दर्शनकार यही दावा करता है कि उसका दर्शन पूर्ण और यथार्थ है । एक ओर मानवकी मननशक्तिमूलक तर्कको जगाया जाता है और जब तर्क अपने यौवनपर आता है तभी रोक दिया जाता है और 'तर्कोऽप्रतिष्ठः ' 'तर्काप्रतिष्ठानात्' जैसे बन्धनोंसे उसे जकड़ दिया जाता है । 'तर्कसे कुछ होने जानेवाला नहीं है' इस प्रकारके नर्कनैराश्यवादका प्रचार किया जाता है। आचार्य हरिभद्र अपने लोकतत्त्वनिर्णयमें स्पष्टरूपसे अतीन्द्रिय पदार्थोंमें तर्ककी निरर्थकता बताते हैं "ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः ॥" अर्थात्–यदि तर्कवादसे अतीन्द्रिय पदार्थोंके स्वरूप निर्णयकी समस्या हल हो सकती होती, तो इतना समय बीत गया, बड़े-बड़े तर्कशास्त्री तर्ककेशरी हुए आज तक उनने इनका निर्णय कर दिया होता । पर अतीन्द्रिय पदार्थोके स्वरूपज्ञानकी पहली पहिलेसे अधिक उलझी हुई है । जय हो उस विज्ञानकी जिसने भौतिक तत्त्वों के स्वरूप निर्णयकी दिशा में पर्याप्त प्रकाश दिया है । दूसरी ओर यह घोषणा की जाती है कि " तापात् छेदात् निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न त्वादरात् ॥” अर्थात् — जैसे सोनेको तपाकर, काटकर, कसौटीपर कसकर उसके खोटे-खरेका निश्चय किया जाता है उसी तरह हमारे वचनोंको अच्छी तरह कसौटीपर कसकर उनका विश्लेषणकर उन्हें ज्ञानाग्निमें तपाकर ही स्वीकार करना केवल अन्धश्रद्धासे नहीं । अन्धी श्रद्धा जितनी सस्ती है उतनी शीघ्र प्रतिपातिनी भी । तब दर्शन शब्दका अर्थ क्या हो सकता है ? इस प्रश्नके उत्तरमें पहिले ये विचार आवश्यक है कि- ज्ञान' वस्तुके पूर्णरूपको जान सकता है या नहीं ? यदि जान सकता है तो इन दर्शन-प्रणेताओंको पूर्ण ज्ञान था या नहीं ? यदि पूर्ण ज्ञान था तो मतभेदका कारण क्या है ? Jain Education International १. ज्ञान - जीव चैतन्यशक्तिवाला है । यह चैतन्यशक्ति जब बाह्य वस्तुके स्वरूपको जानती है तब ज्ञान कहलाती है । इसीलिए शास्त्रोंमें ज्ञानको साकार बनाया है । जब चैतन्यशक्ति ज्ञेयको न जानकर स्वचैतन्याकार रहती है तब उस निराकार अवस्था में दर्शन कहलाती है । अर्थात् चैतन्यशक्तिके दो आकार हुए एक ज्ञेयाकार और दूसरा चैतन्याकार । ज्ञेयाकार दशाका नाम ज्ञान और चैतन्याकार दशाका नाम दर्शन है । चैतन्यशक्ति काँच के समान स्वच्छ और निर्विकार है । जब उस काँचको पीछे पारेकी कलई करके इस योग्य बना दिया जाता है कि उसमें प्रतिबिम्ब पड़ सके तब उसे दर्पण कहने लगते हैं । जब तक काँच में कलई लगी हुई है तब तक उसमें किसी न किसी पदार्थ के प्रतिबिम्बकी सम्भावना है । यद्यपि प्रतिबिम्बाकार परिणमन काँचका ही हुआ है पर वह परिणमन उसका निमित्तजन्य है । उसी तरह निर्विकार चितिशक्तिका ज्ञेयाकार परिणमन जिसे हम ज्ञान कहते हैं मन, शरीर, इन्द्रिय आदि निमित्तोंके आधीन है या यों कहिये कि जब तक उसकी बद्ध दशा है तब तक बाह्य निमित्तोंके अनुसार उसका ज्ञेयाकार परिणमन होता रहता है । जब अशरीरी सिद्ध अवस्थामें जीव पहुँच जाता है तब सकल उपाधियोंसे शून्य होनेके कारण उसका ज्ञेयाकार परिणमन न होकर शुद्ध चिदाकार परिणमन रहता है । इस विवेचनका संक्षिप्त तात्पर्य यह है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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