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________________ ७२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ मलयगिरि आचार्यकी दृष्टिसे सब ही नय मिध्यारूप हैं । इनका कहना है कि यदि नयवाक्यमें स्यात् शब्दका प्रयोग किया जायगा तो वे स्याच्छब्दके द्वारा सूचित अनन्तधर्मोके ग्राहक हो जाने के कारण प्रमाणरूप ही हो जायँगे | अतः प्रमाणवाक्यमें ही स्याच्छब्दका प्रयोग उनके मतसे ठीक है नय वाक्यमें नहीं । इसी आशयसे उन्होंने अकलंकके मतकी ममालोचना को है । उपा० यशोविजयजीने इसका समाधान करते हुए लिखा है कि-- मात्र स्यात् पदके प्रयोगसे ही नयवाक्यमें प्रमाणता नहीं आ सकती; क्योंकि प्रमाण में तो अनन्तधर्मोंका मुख्यतया ग्रहण होता है जबकि सुनयमें स्याच्छब्द-सूचित बाकी धर्म गौण रहते हैं आदि । अतः समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि द्वारा उपज्ञात यही व्यवस्था ठीक है कि - सापेक्ष नय सम्यक्, तथा निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं । संशयादि दूषण- -- अनेकात्मक वस्तुमें संशयादि दूषणोंके शिकार जैन ही नहीं बने किन्तु इतर लोग भी हुए हैं । जैनकी तरह पातञ्जलमहाभाष्यमें वस्तुको उत्पादादिधर्मशाली कहा है । व्यासभाष्य में परिामका लक्षण करते हुए स्पष्ट लिखा है कि- 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः' अर्थात् स्थिर द्रव्यकी एक अवस्थाका नाश होना तथा दूसरीका उत्पन्न होना ही परिणाम है । इसी भाष्य में 'सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य' प्रयोग करके अर्थ की सामान्यविशेषात्मकता भी द्योतित की है। भट्टकुमारिलने मीमांसाश्लोकवार्तिकमें अर्थकी सामान्यविशेषात्मकता तथा भेदाभेदात्मकताका इतर-दूषणोंका परिहार करके प्रबल समर्थन किया है । उन्होंने समन्तभद्रकी " घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्” ( आप्तमी० का० ५९ ) जैसी - 'वर्धमानकभंगेन रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमाथिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ।" इत्यादि कारिकाएँ लिखकर बहुत स्पष्टरूपसे वस्तु के यात्मकत्वका समर्थन किया है । भास्कराचार्यने भास्करभाष्यमें ब्रह्म से अवस्थाओंका भेदाभेद समर्थन बहुत विस्तारसे किया है । कुमारिलानुयायी पार्थसारथिमिश्र भी अवयव अवयवी, धर्म-धर्मी आदिमें कथञ्चित् भेदाभेदका समर्थन करते हैं । सांख्यके मतसे प्रधान एक होते हुए भी त्रिगुणात्मक, नित्य होकर भी अनित्य, अव्यक्त होकर भी व्यक्त आदि रूपसे परिणामी नित्य माना गया है । व्यासभाष्यमें ' त्रैलोक्यं व्यक्तेरपंति नित्यत्वप्रतिषेधात्, अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्' लिखकर वस्तुकी नित्यानित्यात्मकता द्योतित की है। इस संक्षिप्त यादीसे इतना ध्यान में आ जाता है कि जैनकी तरह कुमारिलादि मीमांसक तथा सांख्य भेदाभेदवादी एवं नित्यानित्यवादी थे । दूषण उद्भावित करनेवालोंमें हम सबसे प्राचीन बादरायण आचार्यको कह सकते हैं । उन्होंने ब्रह्मसूत्र में ‘नैकस्मिन्नसंभवात्' - एकमें अनेकता असम्भव है - लिखकर सामान्यरूपसे एकानेकवादियोंका खंडन किया है । उपलब्ध बौद्ध ग्रन्थोंमें धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिकमें सांख्यके भेदाभेदमें विरोध उद्भावन करके 'एतेनैव यदह्नीकाः ' आदि लिखते हैं । तात्पर्य यह कि धर्मकीर्तिका मुख्य आक्षेप सांख्यके ऊपर है तथा उन्हीं दोषोंका उपसंहार जैनका खंडन करते हुए किया गया है। धर्मकीर्तिके टीकाकार कर्णकगोमि जहाँ भी भेदाभेदात्मकताका खंडन करते हैं वहाँ 'एतेन जैनजैमिनीयः यदुक्तम्' आदि शब्द लिखकर जैन और जैमिनिके ऊपर एक ही साथ प्रहार करते हैं। एक स्थानपर तो 'तदुक्तं जैनजैमिनीयः' लिखकर समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाका ‘सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे' यह कारिकांश उद्धृत किया है। एक जगह दिगम्बरका खंडन करते हुए 'तदाह' करके समन्तभद्रकी 'घटमौलिसुवर्णार्थी, पयोव्रतो न दध्यत्ति, न सामान्यात्मनोदेति' इन तीन कारिकाओं के बीच में कुमारिलकी "न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ।।" यह कारिका भी उद्धृत की है। इससे मालूम होता है कि बौद्ध ग्रन्थकारोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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