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________________ - १२ - दिव्य ललाम सुधीजनों के प्रति उनके जीवन काल में अभिनन्दन/प्रतिनन्दन तथा मरणोपरान्त स्मृति/स्मरण/ गुणस्मरण शिष्ट तथा कृतज्ञ समाज का प्राथमिक दायित्व है । जैसा कि आचार्य विद्यानन्दि ने भी लिखा है : "न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।" इस दृष्टि से अभिनन्दन/स्मृति ग्रन्थों की महती उपयोगिता है । विगत साठ वर्षों में यह परम्परा निरन्तर विकास को प्राप्त हुई है, जिसके द्वारा सन्तों, सुधीजनों और राष्ट्रीय तथा सामाजिक क्षेत्र में महनीय व्यक्तित्वों के अभिनन्दन/गुणस्मरण/कृतज्ञता प्रकाश में “अभिनन्दन ग्रन्थ" अथवा "स्मृति ग्रन्थ" प्रकाशित हुए । जैन जगत् में यह परम्परा सन् १९४६ में पं० नाथूराम प्रेमी को समर्पित किये गये अभिनन्दन ग्रन्थ से प्रारम्भ हुई । इस महत्त्वपूर्ण कार्य का सर्वत्र समादर हुआ। इसके उपरान्त अनेक अभिनन्दन/स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनमें राष्ट्र, समाज, धर्म, दर्शन, साहित्य, पुरातत्त्व, विज्ञान, कला. इतिहास और संस्कृति का सार्थक प्रतिपादन हआ है। यहाँ यह प्रश्न सहज ही समाधेय है कि "अभिनन्दन/स्मृति ग्रन्थों की भीड़ में एक और ग्रन्थ क्यों ?" स्मृति ग्रन्थ की आयोजना और उसका इतिहास डॉ० पण्डित न्यायाचार्य श्री महेन्द्रकुमार जैन बीसवीं शती के भारतीय दर्शनशास्त्र, न्यायविद्या एवं जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् थे । उन्होंने न्यायशास्त्र के दुरूह से दुरूह ग्रन्थों का सम्पादन करके, उनकी शोधपूर्ण विस्तृत भूमिकाएँ लिखकर जैन न्याय साहित्य को एक नया जीवन प्रदान किया । उनके द्वारा सम्पादित एवं प्रणीत ग्रन्थ विश्वविद्यालयों एवं जैन शिक्षा संस्थाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं । देश की प्रतिनिधि प्रकाशन संस्था-भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना एवं उसके प्रारंभिक संचालकों में डॉ. महेन्द्रकुमार जी का योगदान अग्रगण्य है । "ज्ञानोदय" जैसी यशस्वी पत्रिका के वे सम्पादक थे। जब उनकी विशिष्ट प्रतिभा प्रकाश में आयी तभी अकस्मात् उनका स्वर्गवास हो गया और भारतीय धर्म, दर्शन एवं न्याय विषयक क्षेत्र के विकास के कितने ही स्वप्न अधूरे रह गये । डॉ० सा० ने अल्प जीवनकाल में ही धर्म, दर्शन-विशेष रूप से जैन न्याय साहित्य, प्राचीन वाङ्मय और राष्ट्र की जो सेवा की वह विरल है । भगवती वाग्देवता के ऐसे यशस्वी वरदपुत्र के कृतित्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित की योजना परमपूज्य युवा मनीषी श्री उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से बनी । वस्तुतः यह कार्य चार दशक पूर्व ही हो जाना चाहिए था । किन्तु इस गुरुतर कार्य का शुभ संकल्प २० अप्रैल १९९४ को अम्बिकापुर में लिया गया और तब से अब तक निरन्तर “डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ" प्रकाशन योजना के प्रमुख प्रेरणास्रोत परमपूज्य श्री १०८ उपाध्याय ज्ञानसागर जी मुनि महाराज हैं । पूज्य उपाध्यायश्री आगमनिष्ठ ज्ञान-ध्यान-तपोनिष्ठ, दुर्द्धर तपस्वी, विद्याव्यसनी, विद्वत्परम्परा के सम्बर्द्धक, परम यशस्वी आध्यात्मिक सन्त हैं । पूज्य उपाध्यायश्री सराक जाति की उत्थान योजना को हाथ में लिए हुए मध्यप्रदेश के सुदूर अंचल में अवस्थित पिछड़े हुए जिला सरगुजा-अम्बिकापुर १९९४ में पधारे । वहाँ के नवनिर्मित जैन मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा के सन्दर्भ में अम्बिकापुर के जिला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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